सड़क से संसद तक सबके लिए एक हो कानून

 

सम्पादकीय : “कानून सबके लिए — प्रधानमंत्री हो या क्लर्क



जनता की आवाज़

 “क्लर्क घोटाले में फँसा तो तुरन्त निलंबित, जेल, बदनामी। लेकिन जब सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेता, मंत्री या प्रधानमंत्री पर संगीन आरोप लगते हैं तो या तो आयोग बना दिया जाता है, या जाँच लटकाई जाती है, या जनता को नए नारे और योजनाओं में उलझा दिया जाता है। क्या यही न्याय है? अगर संविधान कहता है कि भारत एक ‘समानता पर आधारित गणराज्य’ है, तो यह भेदभाव क्यों? आखिर प्रधानमंत्री भी भारत का नागरिक है, और कानून से ऊपर कोई नहीं। ‘क्लर्क जेल जाएगा तो प्रधानमंत्री क्यों नहीं?’— यही सवाल हर गली, हर चौपाल और हर युवा के दिल में गूँज रहा है।

सत्ता पक्ष का बचाव

 “प्रधानमंत्री या बड़े पदों पर बैठे लोग राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन पर त्वरित कार्रवाई से सरकार की साख और राष्ट्र की छवि को नुकसान पहुँचता है। इसलिए उनके मामलों की जाँच प्रक्रियाएँ अलग होती हैं, ताकि किसी भी साजिश या झूठे आरोप के कारण देश की स्थिरता प्रभावित न हो।”

जनता का पलटवार
 “यही तो समस्या है! यही दोहरा मापदण्ड है। देश की साख उस समय गिरती है जब जनता देखती है कि एक साधारण कर्मचारी पर गाज तुरंत गिरती है, लेकिन बड़ा नेता ढाल लेकर बच निकलता है। अगर प्रधानमंत्री निर्दोष हैं तो अदालत उन्हें बरी कर देगी — लेकिन प्रक्रिया तो समान होनी चाहिए। ‘न्याय’ का अर्थ ही है समान नियम, समान सजा। कानून को कमजोर करने वाला असली अपराध यही है कि वह ‘असाधारण’ और ‘साधारण’ के बीच बाँट दिया गया है।”

विपक्ष की भूमिका

 विपक्ष यहाँ भी पाखंड का नाटक करता है। संसद में शोर मचाता है, धरना-प्रदर्शन करता है, मगर जब उनकी अपनी सरकारें रही हैं, तब उन्होंने भी यही ‘विशेषाधिकार’ ढाल के रूप में इस्तेमाल किया। विपक्ष जनता की भावनाओं का इस्तेमाल सिर्फ़ सत्ता में लौटने की सीढ़ी की तरह करता है, पर वास्तविक सुधार— समान न्याय व्यवस्था— को कभी लागू नहीं होने देता।

राष्ट्रवादी दृष्टिकोण

 भारत का राष्ट्रवाद कहता है कि देश की अखंडता और शक्ति जनता के विश्वास पर टिकी है। जब जनता यह महसूस करती है कि “हम सब कानून के आगे बराबर हैं”, तभी लोकतंत्र जीवित रहता है। अगर एक साधारण किसान का बेटा जेल जाता है, तो प्रधानमंत्री, मंत्री, सांसद— 7यू भी क्यों न हो— वही सज़ा भुगतनी चाहिए।

राष्ट्रवाद का तकाज़ा है कि नेता और अधिकारी, साधारण नागरिक से भी कठोर मानदण्ड पर परखे जाएँ, क्योंकि वे राष्ट्र की शपथ लेते हैं। अगर यही लोग अपराध में संलिप्त पाए जाएँ और फिर भी बच निकलें, तो यह केवल भ्रष्टाचार नहीं, बल्कि राष्ट्रद्रोह है।

निष्कर्ष
आज ज़रूरत है एक ही कानून, एक ही दंड की— ‘समान अपराध, समान सज़ा’। यही असली लोकतंत्र है, यही सच्चा राष्ट्रवाद। जब तक यह सिद्धान्त व्यवहार में नहीं उतरेगा, तब तक न्यायालयों की गरिमा, संविधान की आत्मा और जनता का विश्वास अधूरा रहेगा.

राजेंद्र नाथ तिवारी
 

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