संसद को अखाड़ा बनाने वाले विपक्षी सांसद, देश की गाढ़ी कमाई के हत्यारे!

 

संसद सत्र : विपक्ष की गैर-जिम्मेदारी और लोकतंत्र पर हमला

राजेंद्र नाथ तिवारी,बस्ती, उत्तरप्रदेश 

संसद सत्र का समापन हो चुका है। पीछे छोड़ गया है गहरा आक्रोश और राष्ट्रीय पीड़ा। संसद, जिसे लोकतंत्र का मंदिर कहा जाता है, वह बार-बार अखाड़ा क्यों बन जाती है? इस बार सत्र के दौरान देश की जनता के 190 करोड़ रुपए बर्बाद कर दिए गए। औसतन 9 करोड़ रुपए रोज खर्च हुए, लेकिन परिणाम—शून्य। जनता कर चुकाती है विकास के लिए, न कि सांसदों की शोरगुल और हंगामे की नौटंकी के लिए।

विपक्ष का आचरण इस बार भी शर्मनाक रहा। एसआईआर के नाम पर ऐसा हंगामा किया गया, मानो संसद व्यक्तिगत एजेंडा साधने का मंच हो। उन्हें भली-भांति जानकारी थी कि चुनाव आयोग पर चर्चा संविधान की दृष्टि से संभव नहीं है, फिर भी संसद को बार-बार ठप कर देना, यह केवल अवसरवाद और सत्ता-लालसा का प्रदर्शन है। दिवंगत अरुण जेटली के नाम का सहारा लेकर संसद को बंधक बनाना लोकतांत्रिक मूल्यों का अपमान है।

कहने को 26 विधेयक पारित हुए, लेकिन उनमें चर्चा कहाँ हुई? ध्वनिमत से “हाँ-ना” का खेल चलता रहा। क्या यही संसद का उद्देश्य है? ऑनलाइन गेमिंग बिल, जो करोड़ों युवाओं के जीवन और 20,000 करोड़ रुपए के कारोबार को प्रभावित करता है, बिना बहस के पारित कर देना विपक्ष और सत्ता—दोनों की ही जिम्मेदारी पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। विपक्ष अगर लगातार हंगामा करेगा, तो बहस और जवाबदेही कहाँ से संभव होगी?

लोकसभा की उत्पादकता 31% और राज्यसभा की 35%—क्या यह आंकड़े गौरव देने लायक हैं? प्रश्नकाल ही लोकतंत्र की आत्मा है, लेकिन लोकसभा में 4.7 घंटे और राज्यसभा में महज 1.2 घंटे चला। आखिर सांसद मंत्री से सवाल क्यों न कर सके? यह जनता के साथ विश्वासघात नहीं तो और क्या है?

सत्र का एक और कलंक—उपराष्ट्रपति एवं राज्यसभा के सभापति का इस्तीफा। लोकतांत्रिक परंपराओं में यह घटना भी असहज और पीड़ादायक है। ऐसे में विपक्ष का कर्तव्य था कि वह कम से कम संवैधानिक गरिमा बचाए, पर उसने इसे भी मजाक बना दिया।

प्रधानमंत्री मोदी ने अंततः 102 मिनट लंबा भाषण दिया, पर विपक्ष ने सुना कहाँ? विपक्ष का असली चेहरा उजागर हो गया—जनता की गाढ़ी कमाई बर्बाद करना, संसद को बंधक बनाना और अपने राजनीतिक स्वार्थ को राष्ट्रहित से ऊपर रखना।

आज सवाल उठाना जरूरी है—जब जनता की गाढ़ी कमाई संसद की कार्यवाही में जलती है, तो क्यों न उसके नुकसान की भरपाई सांसदों की जेब से हो? क्यों न उनके वेतन-भत्ते काटे जाएं? जब तक सांसदों को सत्र ठप कराने की कीमत चुकानी नहीं पड़ेगी, तब तक लोकतंत्र यूँ ही रसातल में धकेला जाता रहेगा।

विपक्ष, अपनी जिम्मेदारी निभाइए! लोकतंत्र आपके शोर से नहीं, आपकी गंभीर बहस और सार्थक भागीदारी से मजबूत होगा। संसद को बंधक बनाना लोकतंत्र की हत्या है।


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