मूर्ख नेतृत्व की कीमत : यूक्रेन की त्रासदी और भारत के लिए चेतावनी
राष्ट्र के भविष्य को आकार देने में नेतृत्व की भूमिका सर्वोपरि होती है। यदि शासक दूरदर्शी हो तो वही राष्ट्र विपरीत परिस्थितियों को अवसर में बदल देता है। किंतु यदि नेतृत्व अदूरदर्शी, महत्वाकांक्षी और विदेशी दबावों में जीने वाला हो, तो उसका परिणाम विनाशकारी होता है। यूक्रेन इसका जीता-जागता उदाहरण है।
कभी गेहूं और रेयर अर्थ मेटल की आपूर्ति के कारण पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला यूक्रेन आज खंडहर में तब्दील है। राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेन्स्की ने नाटो सदस्यता के लिए अंधी जिद पकड़ी। परिणाम यह हुआ कि रूस के साथ टकराव अनिवार्य हो गया। अब तक लाखों लोग मारे जा चुके हैं, करोड़ों शरणार्थी दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं और देश का एक बड़ा हिस्सा रूस के कब्ज़े में जा चुका है।
और अब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का ताज़ा बयान इस त्रासदी पर अंतिम मुहर है—यूक्रेन नाटो का सदस्य कभी नहीं बनेगा। यानी जिस लक्ष्य के लिए यूक्रेन ने अपनी संप्रभुता, अर्थव्यवस्था और भविष्य दांव पर लगाया, वही सपना अब हमेशा के लिए टूट चुका है।
यह त्रासदी हमें सिखाती है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भावनाओं और दिखावे से काम नहीं चलता। विदेशी शक्तियाँ केवल अपने हित देखती हैं, और यदि कोई राष्ट्र उनके बहकावे में आकर गलत दिशा में चल पड़ा, तो उसकी नियति यूक्रेन जैसी हो जाती है।
भारत को इस सच्चाई से सबक लेना होगा। हमारा भू-राजनीतिक वातावरण भी जटिल है—चीन सीमा पर लगातार दबाव बनाए हुए है, पाकिस्तान आतंकवाद के जरिए अस्थिरता फैलाता है और पश्चिमी शक्तियाँ भारत को अपने हितों के अनुसार झुकाना चाहती हैं। यदि भारत का नेतृत्व किसी भी धड़े का अंधानुयायी बना या विदेशी चकाचौंध में बह गया, तो वही स्थिति यहाँ भी पैदा हो सकती है।
चाणक्य ने स्पष्ट कहा था—“मूर्ख राजा, कपटी मंत्री और गूंगी प्रजा—इन तीनों का अंत राज्य का विनाश है।” यूक्रेन की त्रासदी इसी कथन की पुष्टि है। भारत के नागरिकों को यह समझना होगा कि लोकप्रियता और विदेशी समर्थन से अधिक आवश्यक है विवेक, रणनीति और राष्ट्रहित।
भारत की शक्ति उसकी रणनीतिक स्वायत्तता है। यदि हम इस सिद्धांत से विचलित हुए, तो हमारी अस्मिता भी संकट में पड़ सकती है। यूक्रेन की बर्बादी हमारे लिए एक आईना है—और चेतावनी भी।