राजेंद्र नाथ तिवारी,बस्ती(वशिष्ठनगर), उत्तरप्रदेश
पंडित बनाम संत : अहंकार बनाम प्रेम
रामभद्राचार्य जी!
आपने एक बार फिर साबित कर दिया कि आप संत से ज़्यादा पंडित हैं। आपने कहा – संस्कृत जाने वही विद्वान! तो क्या कबीर मूर्ख थे? रैदास अज्ञानी? मीरा भावुक गंवार? सूरदास अंधे मनुष्य मात्र?यह संत की वाणी नहीं, यह पंडित का अहंकार है। और याद रखिए – संत का असली शस्त्र प्रेम है, जबकि पंडित का शस्त्र उद्धरण और तिरस्कार। कबीर ने ऐसे ही नकली विद्वानों पर चोट की थी—
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय॥
रामभद्राचार्य जी, आपकी गिनती कहाँ होगी? उस पंक्ति में जहाँ ढाई आखर पढ़ने वाले खड़े हैं, या उस पंक्ति में जहाँ पोथी ढोने वाले पड़े हैं? भगवान ने गीता में साफ़ कहा—वोमद्भक्ता यत्र गायन्ति, तत्र तिष्ठामि नारद॥ ईश्वर भाषा नहीं देखते, भक्ति देखते हैं। भले ही वह ब्रज हो, अवधी हो, भोजपुरी हो या किसी गली का टूटा–फूटा बोलचाल का शब्द—जहाँ प्रेम है, वहाँ भगवान हैं। लेकिन आप? आप दीवार खड़ी कर रहे हैं। आपने संस्कृत को साधन नहीं, ईश्वर बना दिया है। यही आपकी हार है। यही संतत्व का अंत है।
प्रेमानंद जैसे संत संग्रह–वृत्ति छोड़कर समाज को सकारात्मक ऊर्जा बाँट रहे हैं। वे संत हैं। और आप?आप विद्वान ज़रूर हैं, पर संत नहीं। संत जोड़ते हैं, आप तोड़ रहे हैं। संत झुकते हैं, आप अकड़ रहे हैं। संत प्रेम बाँटते हैं, आप तिरस्कार उगल रहे हैं।
याद रखिए— पंडित की विद्वत्ता किताबों तक रहती है, संत का प्रेम युगों तक। पंडित शास्त्रों में कैद होता है, संत हृदयों में बसता है। और आपकी वर्तमान दशा यही बता रही है कि आप विद्वान भले हों, पर संतत्व से बहुत दूर जा चुके हैं। पंडित बनना आसान है, संत बनना कठिन।
रामभद्राचार्य जी, आप चाहें तो कल ही पंडितों की भीड़ में गुम हो सकते हैं। पर अगर संत कहलाना चाहते हैं, तो अपने अहंकार का तिरस्कार कीजिए। अन्यथा इतिहास आपको एक ही नाम से पुकारेगा—अहंकारी पंडित।
यदि आपको असहज लगे तो मेरा लिखना सार्थक.