संपादकीय
थानाध्यक्ष: नौकरशाही का मालिकाना अंदाज़ या जनता का सेवक?
उत्तर प्रदेश के थाने आज "कानून-व्यवस्था के मंदिर" कम और "अहंकार के दुर्ग" अधिक दिखाई देने लगे हैं। खासकर बस्ती सहित प्रदेश के अधिकांश जिलों में थानाध्यक्ष का नया अवतार कुछ ऐसा है मानो वह संवैधानिक जिम्मेदारियों से नहीं, बल्कि "निजी साम्राज्य" से शपथ लेकर बैठा हो।
थाने में आने वाला व्यक्ति—चाहे आम नागरिक हो, पत्रकार, साहित्यकार, नेता या विधायक—सबके साथ रोज़ का अनुभव यही है कि थानाध्यक्ष या तो फोन उठाते ही नहीं, और यदि उठा भी लें तो जवाब में अहंकार और कटाक्ष परोसते हैं। "कौन बोल रहा है? अभी व्यस्त हूँ। बाद में बात करूँगा।" यह भाषा किसी सरकारी नौकर की नहीं, बल्कि मालिक की प्रतीत होती है।
क्या थानाध्यक्ष की "जॉब चार्ट" में यह लिखा है कि –
- आम जनता की अनदेखी करो,
- प्रतिनिधियों की बातों को हाशिये पर डालो,
- और हर कॉल को ‘प्राइवेट’ मानकर उपेक्षित करो?
दरअसल, यह एक गहरी कुव्यवस्था का प्रतिबिंब है। लोकतांत्रिक ढांचे में थाना जनता के लिए सबसे पहला दरवाज़ा है। यदि वही दरवाज़ा बंद हो जाए, तो न्याय और सुरक्षा की गारंटी कैसे संभव है? जनता की उम्मीदें पुलिस से रहती हैं, लेकिन थानाध्यक्ष का रोज़ाना रवैया उन्हें उपेक्षा और अपमान का स्वाद चखाता है।
यह स्थिति केवल प्रशासनिक लापरवाही नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति सीधी बेवफाई है। थाने में बैठा अधिकारी संविधान से ऊपर नहीं, बल्कि संविधान का सेवक है। लेकिन जब वह जनता और प्रतिनिधियों से संवाद तक करने में परहेज़ करने लगे, तो यह केवल “दुर्व्यवहार” नहीं, बल्कि “कर्तव्यच्युति” है.
माननीय मुख्यमंत्री और डीजीपी उत्तर प्रदेश को यह गंभीर त
थ्य संज्ञान में लेना चाहिए कि थानाध्यक्षों का यह "नया अवतार" न केवल जनप्रतिनिधियों का अपमान है, बल्कि शासन की साख पर सीधा धब्बा भी है। यदि थाने पर तैनात अधिकारी जनता और प्रतिनिधियों से संवाद करने में असमर्थ हैं, तो उन्हें कठोर अनुशासनात्मक प्रशिक्षण या दंड मिलना चाहिए।
जनता का धैर्य सीमित है। पुलिस का सम्मान तभी तक है जब तक वह सेवा और सुरक्षा का दायित्व निभाती है। अन्यथा, थानाध्यक्ष के इस मालिकाना व्यवहार से समाज और सत्ता दोनों की साख खतरे में पड़ जाएगी।
प्रभारी बनने और प्रभारी बनने के बाद का चरित्र ही sho की वास्तविक पहचान है