स्वाध्याय से भागते कलम, कैमरा, कुर्सी और युवा"

 शॉर्ट खबरों के नशे में सुस्त दिमाग — स्वाध्याय से भागता साहित्यकार, पत्रकार, नेता और युवा

ऋषि मिश्रा,लखनऊ
आज का साहित्यकार दो पन्ने भी पढ़ने में आलसी है, लेकिन सोशल मीडिया पर “मैंने आज की स्थिति पर गहरा विचार किया” लिखकर फोटो चिपका देगा। पत्रकार, जिसे पहले महीनों की पड़ताल करनी चाहिए थी, अब व्हाट्सऐप फ़ॉरवर्ड से हेडलाइन बना देता है। नेता? किताब तो छोड़िए, अपना घोषणापत्र भी पूरी तरह नहीं पढ़ते — लेकिन मंच पर “विचारधारा” पर लंबा भाषण ठोक देंगे। और युवा? वह तो रील के बीच में भी स्किप बटन दबा देता है, किताब के पहले पन्ने के बाद तो उसका मस्तिष्क वाई-फाई से डिस्कनेक्ट हो जाता है।

सच्चाई कड़वी है:

  • साहित्यकार: शोध छोड़कर सस्ती लोकप्रियता के पीछे भागता कवि और लेखक।
  • पत्रकार: तथ्य की जगह फटाफट फर्जी “ब्रेकिंग” पर जीता।
  • नेता: नीति पढ़ना तो दूर, शब्दों का सही उच्चारण भी गूगल से पूछते हैं।
  • युवा: ज्ञान से एलर्जी, शॉर्टकट से मोहब्बत।

स्वाध्याय हमारे समाज का मांसपेशी है, लेकिन हमने इसे “जिम में मेंबरशिप ली पर गए नहीं” जैसा बना दिया है। हम पढ़ते नहीं, सोचते नहीं, लेकिन राय ऐसे देते हैं जैसे नोबेल हमारे दरवाजे पर खड़ा है।


जब साहित्यकार बिना पढ़े लिखेगा, पत्रकार बिना जांचे छापेगा, नेता बिना सोचे बोलेगा, और युवा बिना समझे चलेगा — तब समाज का पतन सिर्फ़ संभावना नहीं, निश्चित घटना है। और यह पतन शॉर्ट खबरों की तरह फटाफट आएगा — बस अफसोस, उसे रोकने का कोई स्किप बटन नहीं है .

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