वोटों का गणित, अपमान की चुप्पी और तुष्टिकरण की हद
राजेंद्र नाथ तिवारी
भारतीय राजनीति में तुष्टिकरण कोई नई बीमारी नहीं, लेकिन अखिलेश यादव ने इसे जिस ऊँचाई तक पहुँचाया है, वह उदाहरण अपने आप में चौंकाने वाला है। मस्जिद में सुशील, आदर्श और मर्यादित नारी—श्रीमती डिंपल यादव—का अपमान हुआ। यह अपमान सिर्फ़ एक महिला का नहीं, बल्कि समाज में महिला गरिमा और राजनीतिक आत्मसम्मान का भी था। लेकिन अखिलेश यादव की प्रतिक्रिया? पूरी चुप्पी। क्यों? क्योंकि सपा का समीकरण वोटों से चलता है, और वोट बैंक की राजनीति में अपमान का मोल ‘जीरो’ हो जाता है, अगर वह किसी खास समुदाय को नाराज़ करने का खतरा पैदा करे। अखिलेश ने पति, नेता और मर्यादा—all roles—को वोटों की भूख के आगे गिरवी रख दिया।
पूजा पाल का मामला—तुष्टिकरण का दूसरा चेहरा अतीक अहमद—एक नाम जो अपराध, आतंक और डर का प्रतीक रहा। और पूजा पाल—जिसने अपने पति की हत्या के बाद साहसपूर्वक अतीक के खिलाफ़ मोर्चा खोला। यह वही पूजा पाल हैं जिनकी लड़ाई से अपराधी साम्राज्य की चूलें हिल गईं ,लेकिन, चौंकाने वाली बात यह कि यही पूजा पाल अब समाजवादी पार्टी से निष्कासित कर दी गईं। कारण? उनकी राजनीतिक लाइन सपा की मुस्लिम वोट-बैंक राजनीति में फिट नहीं बैठती। पूजा पाल को हटाना सिर्फ़ एक संगठनात्मक फैसला नहीं था—यह संदेश था कि साहस, ईमानदारी और न्याय से बढ़कर सपा के लिए वोटों का गणित अहम है।
एक ही सूत्र में बंधी दो घटनाएँ डिंपल यादव का अपमान — चुप्पी, ताकि मुस्लिम मतदाता नाराज़ न हों। पूजा पाल का निष्कासन — एक साहसी महिला की राजनीतिक हत्या, ताकि मुस्लिम तुष्टिकरण के एजेंडे को चोट न पहुँचे। ये दोनों घटनाएँ एक ही सूत्र से जुड़ी हैं—वोटों के लिए अपमान भी निगला जाएगा और न्याय भी कुर्बान किया जाएगा।
राजनीति में विचारधारा और नैतिकता का स्थान घटता जा रहा है। समाजवादी पार्टी जैसे दलों के लिए तुष्टिकरण अब एक ‘रणनीति’ नहीं बल्कि ‘आस्था’ बन चुका है। लेकिन जनता को यह तय करना होगा कि वह नेताओं को उनके वोट बैंक के प्रति वफ़ादारी से आँकना चाहती है, या सत्य और न्याय के प्रति उनकी प्रतिबद्धता से।
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