योगी, भोगी और रोगी — आज के भारत के लिए चेतावनी

 



योगी, भोगी और रोगी — आज के भारत के लिए चेतावनी.


राजेंद्र नाथ तिवारी,बस्ती, उत्तरप्रदेश 

मानव सभ्यता की यात्रा अगर गौर से देखी जाए, तो इसकी कहानी तीन ही “जातियों” में बँटी दिखाई देती है — योगी, भोगी और रोगी। यह न तो धर्म से बँधा विभाजन है, न ही किसी संविधान में दर्ज श्रेणी; यह मानवीय प्रवृत्तियों का गहन वर्गीकरण है, जो हर युग, हर देश और हर समाज में मौजूद रहा है। फर्क बस इतना है कि इन तीनों में किसका अनुपात कितना है, और सत्ता व समाज किसे महिमा-मंडित कर रहे हैं।

योगी: निर्माता और मार्गदर्शक

योगी वे हैं, जिन्होंने जीवन को आगे बढ़ाने के लिए कुछ नया बनाया, रास्ता दिखाया, विचार गढ़े और जोखिम उठाए। यह योगी सिर्फ सन्यासी नहीं हैं; इनमें विज्ञान के आविष्कारक, कला के रचनाकार, तकनीक के जनक, और नैतिकता के दीपक जलाने वाले सब शामिल हैं। जिन लोगों ने दो पत्थर रगड़कर आग पैदा की, पहिया बनाया, बिजली खोजी, जीवन-रक्षक दवाइयाँ तैयार कीं, या स्वतंत्रता की मशाल जलाई — वे सब योगी हैं।
इनका योगदान यह था कि उन्होंने खुद के लाभ से पहले, मानवता के लाभ को प्राथमिकता दी। उनके प्रयासों ने समाज की सीढ़ी में अगला पायदान जोड़ा।

भोगी: सदुपयोगकर्ता

भोगी वे हैं जिन्होंने योगियों के दिए साधनों, तकनीकों और विचारों का जिम्मेदारी से उपयोग किया। ये वे लोग हैं जो आग से रोटी पकाते हैं, चाकू से सब्जी काटते हैं, धर्म से करुणा सीखते हैं, राजनीति से सेवा करते हैं, और तकनीक से शिक्षा-स्वास्थ्य में सुधार करते हैं।
भोगी जरूरी हैं क्योंकि वे दिखाते हैं कि आविष्कार सिर्फ प्रयोगशाला में ही नहीं, बल्कि रोज़मर्रा के जीवन में भी जीवनदायी हो सकता है। भोगी ही वह कड़ी हैं जो विचार को व्यवहार में बदलते हैं।

रोगी: दुरुपयोगकर्ता

परंतु, इतिहास में हर अच्छे आविष्कार के साथ एक छाया भी रही है — रोगी।
रोगी वे हैं जो उसी आग का इस्तेमाल हिंसा की लपटें भड़काने में करते हैं, चाकू से हत्या करते हैं, धर्म को धंधा बनाते हैं, विज्ञान को विनाशक हथियारों में ढालते हैं, और लोकतंत्र को तानाशाही के हथियार में बदल देते हैं।
रोगियों की सबसे खतरनाक बात यह है कि वे अक्सर शुरू में भोगी के रूप में नज़र आते हैं — सभ्य, सफल, और लोकप्रिय — लेकिन धीरे-धीरे उनकी प्रवृत्ति दुरुपयोग की दिशा में फिसल जाती है।

आज का भारत और इन तीनों की भूमिका

आज भारत की राजनीति, मीडिया, और सामाजिक परिदृश्य को देखें तो यह त्रिवर्ग बहुत साफ दिखाई देता है। हमारे पास अब भी कुछ योगी हैं — वैज्ञानिक, सामाजिक कार्यकर्ता, शिक्षक, और तकनीकविद — जो दिन-रात बिना स्पॉटलाइट के काम कर रहे हैं। हमारे पास भोगियों का एक बड़ा तबका है — सामान्य नागरिक, जो इन साधनों का सदुपयोग कर अपने परिवार और समाज को बेहतर बनाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन दुखद यह है कि आज रोगियों का अनुपात खतरनाक रूप से बढ़ गया है — खासकर उन जगहों पर जहाँ सबसे ज्यादा जिम्मेदारी की जरूरत थी: सत्ता, पूँजी और सूचना के केंद्रों में।

नेताओं के लिए कठोर चेतावनी

राजनीति आज लोकतंत्र का मंदिर कम, और रोगियों का क्लब ज्यादा लगने लगी है। स्वतंत्रता दिलाने वाले योगियों ने जो तंत्र बनाया, उसका भोगियों ने कुछ दशकों तक सदुपयोग किया। लेकिन आज, चुनाव जीतने के लिए झूठ, नफरत, और फूट डालने की कला ने राष्ट्र-निर्माण की नीतियों को किनारे कर दिया है। सत्ता पाने के बाद, सेवा का भाव विलुप्त हो रहा है, और तानाशाही की प्रवृत्ति पनप रही है। यह रोगी मानसिकता देश को न सिर्फ आर्थिक, बल्कि नैतिक पतन की ओर ले जाएगी।

नेताओं के लिए सवाल:
क्या आप योगियों की तरह जनता को आगे ले जाने का जोखिम उठा सकते हैं, या रोगियों की तरह सत्ता बचाने के लिए समाज को पीछे धकेलते रहेंगे?

युवाओं के लिए मारक संदेश

आज के युवा के पास इतिहास के किसी भी दौर से अधिक संसाधन हैं — इंटरनेट, वैश्विक संपर्क, तकनीक, और ज्ञान के भंडार। लेकिन यह भी सच है कि उनके सामने दुरुपयोग का सबसे बड़ा खतरा है।
सोशल मीडिया, जो संवाद का क्रांतिकारी मंच हो सकता था, रोगियों के हाथों में नफरत फैलाने, अफवाहें फैलाने, और ध्यान भटकाने का औज़ार बन गया है।
गैजेट्स, जो सीखने और सृजन का माध्यम हो सकते थे, वे समय बर्बाद करने और आभासी नशे में डूबाने वाले खिलौने बन गए हैं।

युवाओं के लिए सवाल:
क्या आप तकनीक के भोगी बनेंगे — यानी इसका सदुपयोग कर खुद और समाज को आगे ले जाएंगे — या रोगी बनकर खुद को और देश को अंधेरे में धकेलेंगे?

शिक्षा में विकृति — क्यों हम रोगियों की कहानियाँ पढ़ते हैं?

हमारे स्कूलों में युद्ध, तख्तापलट, और खून-खराबे की कहानियाँ भरी पड़ी हैं। हिटलर का नाम हर बच्चा जानता है, लेकिन पहिया बनाने वाले, पेनिसिलिन खोजने वाले या इंटरनेट के जनक के बारे में कितने जानते हैं?
विकास का इतिहास — यह कैसे हुआ कि हमने पत्थर से मोबाइल तक की यात्रा की — वह या तो गायब है या फुटनोट में दबा है।
जब पीढ़ियाँ सिर्फ विनाश के नायकों को जानती हैं, तो वे यह भूल जाती हैं कि रचना ही सभ्यता की असली पहचान है। यही कारण है कि रोगियों को मंच और मेडल दोनों मिलते हैं, जबकि योगी गुमनामी में खो जाते हैं।

समाधान — रोगियों के युग से योगियों के युग की ओर

  1. पाठ्यक्रम सुधार: बच्चों को केवल युद्धों का नहीं, आविष्कारों और सामाजिक सुधारों का इतिहास पढ़ाएँ।
  2. मीडिया संतुलन: हिंसा और घोटालों के साथ-साथ नवाचार और सामाजिक कार्यों को भी प्रमुखता दें।
  3. राजनीतिक शुचिता: दलों को योगियों की तरह दीर्घकालिक दृष्टि रखनी होगी, न कि रोगियों की तरह तात्कालिक फायदे के लिए समाज को बाँटना।
  4. युवा नेतृत्व: युवाओं को टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल सृजनात्मक परियोजनाओं, स्टार्टअप्स, और सामाजिक अभियानों में करना चाहिए।
  5. सार्वजनिक स्मृति: सड़कों, संस्थानों और पुरस्कारों का नाम सिर्फ युद्ध नायकों पर नहीं, बल्कि वैज्ञानिकों, शिक्षकों और सामाजिक सुधारकों पर भी होना चाहिए।

निष्कर्ष

मानव समाज की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि योगी बनाना कठिन है, भोगी बनना आसान है, और रोगी बनना सबसे आसान।
आज भारत के सामने सबसे बड़ा सवाल यही है — हम किस अनुपात को बढ़ा रहे हैं?
नेताओं के लिए यह समय आईने में झाँकने का है: क्या वे इतिहास में योगियों के रूप में याद होंगे या रोगियों के रूप में लानत पाएँगे?
युवाओं के लिए यह समय निर्णय का है: क्या वे तकनीक और अवसरों का इस्तेमाल निर्माण में करेंगे, या रोगियों के हाथों की कठपुतली बनेंगे?

अगर हम चाहते हैं कि आने वाली पीढ़ियाँ योगियों का युग देखें, तो हमें आज ही भोगियों को जिम्मेदार और रोगियों को अप्रासंगिक बनाना होगा।
याद रखिए — आग जलाना योगी का काम है, उसका सदुपयोग भोगी का, और उसका दुरुपयोग रोकना हम सबका काम है।


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