चुनावी राजनीति में हार-जीत पुरानी बात है, पर हाल के दिनों में हार का ठीकरा “वोट चोरी” पर फोड़ना एक नया फैशन बनता जा रहा है। राहुल गांधी का ताज़ा बयान—कि विपक्ष की हार वोट चोरी का नतीजा है—सिर्फ एक भावनात्मक विस्फोट नहीं, बल्कि एक राजनीतिक रणनीति की बारीक कड़ी भी है।
असल सवाल यह है कि क्या सचमुच वोट चोरी हुई, या यह नैरेटिव सिर्फ इसलिए गढ़ा गया ताकि हार की कड़वाहट को कार्यकर्ताओं के जोश में बदला जा सके? इतिहास गवाह है कि जब दल अपने आत्ममंथन से कतराते हैं, तो वे हार की वजह किसी और के कंधे पर रख देते हैं—कभी मशीन पर, कभी मीडिया पर, और अब “चोरी” पर। यह जनता के लिए नहीं, अपनी राजनीति के लिए बोया गया बीज है।
राहुल गांधी के बयान के कई अर्थ हैं। पहला—समर्थकों को यह यकीन दिलाना कि लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई। दूसरा—जनता के बीच यह संदेश पहुँचाना कि सत्ता पाने के लिए प्रतिद्वंद्वी किसी भी हद तक जा सकते हैं। तीसरा—भविष्य में होने वाले चुनावों के लिए पहले से ही एक सुरक्षात्मक कवच तैयार करना: अगर फिर हार हो तो कहने के लिए बहाना मौजूद रहे।
पर सवाल यह भी है—क्या यह बयान लोकतंत्र की जड़ों को कमजोर नहीं करता? जब बिना ठोस सबूत के चुनावी प्रक्रिया पर अविश्वास बोया जाता है, तो उसका असर केवल विपक्षी दल पर नहीं, पूरे तंत्र पर पड़ता है। जनता को भी यह समझना होगा कि लोकतंत्र में आरोप से ज्यादा ताकत सबूत की होती है।
सच यह है कि राजनीति में “हताशा” और “रणनीति” अक्सर एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। राहुल गांधी का यह बयान शायद दोनों का मिला-जुला रूप है—जहाँ निराशा भी है और चतुराई भी। फर्क बस इतना है कि जनता तय करेगी, यह दाव सच में मारक है या सिर्फ माइक्रोफोन पर गूंजने वाला शोर।