डिग्री कागज का टुकड़ा है,विचार !राष्ट्र की असली की असली मुद्रा है

 




 शिक्षा की चकाचौंध और युवा मानसिकता
अशोक कुमार पाण्डेय, रिटायर्ड शिक्षा कर्मी,बस्ती, उत्तरप्रदेश 


भारतीय परंपरा में शिक्षा का अर्थ सिर्फ रोजगार नहीं था—वह जीवन जीने की कला थी। हमारे यहाँ तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालय सिर्फ पाठ्यक्रम नहीं, बल्कि संस्कृति के केंद्र थे। वहाँ गणित और खगोलशास्त्र के साथ-साथ दर्शन,

साहित्य, न्यायशास्त्र, कृषि, शिल्प और आयुर्वेद भी पढ़ाए जाते थे। छात्र यहाँ से निकलकर सिर्फ वेतनभोगी नहीं, बल्कि समाज-निर्माता बनते थे।


महर्षि अष्टावक्र और जनक का संवाद हो, चाणक्य की कूटनीति हो, या महात्मा गांधी और रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शिक्षा-विचार—इन सबका मूल यही था कि शिक्षा मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाए। आज की तस्वीर इक्कीसवीं सदी में, खासकर पिछले दो दशकों में, शिक्षा का स्वरूप बदलकर एक प्रतिस्पर्धी बाजार का रूप ले चुका है।

स्कूल: रैंक और बोर्ड के अंकों की होड़। कॉलेज: कैंपस प्लेसमेंट और पैकेज का मोह। कोचिंग संस्थान: रट्टा मारने की फैक्ट्री। आज अधिकांश युवाओं के लिए शिक्षा का अर्थ है—एक सर्टिफिकेट जो नौकरी की चौखट तक पहुँचा दे। सोचने-समझने, सवाल उठाने और समाधान खोजने की क्षमता पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता।

युवा मानसिकता में बदलाव  तकनीक और सोशल मीडिया ने युवाओं को अभूतपूर्व अवसर दिए हैं। वे वैश्विक मुद्दों पर राय रखते हैं, ट्रेंड्स से जुड़े रहते हैं, और पलभर में कोई जानकारी खोज सकते हैं।
लेकिन यही सुविधा एक खतरा भी बन गई है—सूचना की बाढ़ में डूबना: गहराई में जाने की आदत कम हो रही है। अधीरता: सब कुछ तुरंत चाहिए—परिणाम भी, बदलाव भी।

लोकल से दूरी: ग्लोबल ट्रेंड्स अपनाने में रुचि है, लेकिन अपनी भाषा, परंपरा और जड़ों से कटाव बढ़ रहा है। ऐतिहासिक दृष्टांत और आज का अंतर तक्षशिला और नालंदा में एक छात्र को वर्षों तक विविध विषयों का अभ्यास करना पड़ता था, और चरित्र-निर्माण शिक्षा का अभिन्न हिस्सा था।

गांधी का नैतिक शिक्षा पर ज़ोर और टैगोर का शांतिनिकेतन मॉडल—दोनों में कला, श्रम और प्रकृति के संपर्क को अनिवार्य माना गया। इसके विपरीत, आज का शिक्षा-तंत्र युवाओं को नौकरी के लिए प्रशिक्षित उपभोक्ता बना रहा है, न कि स्वावलंबी सृजनकर्ता।


आधुनिक चुनौतियाँ 
आने वाले वर्षों में कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) कई पारंपरिक नौकरियों को खत्म कर सकती है। अगर हमारी शिक्षा-नीति युवाओं में क्रिटिकल थिंकिंग और क्रिएटिविटी नहीं डालेगी, तो वे मशीनों से प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाएंगे। 2. रोजगार संकट
डिग्रीधारियों की संख्या बढ़ रही है, लेकिन रोजगार की गुणवत्ता और संख्या दोनों में गिरावट है।3. माइग्रेशन और ब्रेन-ड्रेन
प्रतिभाशाली युवा विदेशों में बेहतर अवसर तलाशते हैं, और अपने देश के विकास में योगदान सीमित कर देते हैं।

युवा का आईना आज का युवा एक आईने के सामने खड़ा है—आईना, जो पूछ रहा है: "क्या तुम्हारे सपनों के पीछे संघर्ष की आग है, या सिर्फ दिखावे की चमक?"

जो इस सवाल का जवाब ईमानदारी से देगा, वही अपने जीवन को सार्थक बना पाएगा। और यह जवाब सिर्फ व्यक्तिगत नहीं, बल्कि राष्ट्रीय भविष्य का निर्धारण करेगा।


समाधान का मार्ग 1. शिक्षा का पुनर्गठन ,पाठ्यक्रम में जीवन-कौशल, नैतिक शिक्षा, और उद्यमिता को अनिवार्य किया जाए। स्कूल और कॉलेज में प्रोजेक्ट आधारित शिक्षा को बढ़ावा मिले, जिससे धैर्य, टीमवर्क और समस्या-समाधान की क्षमता विकसित हो।

2. स्थानीय जड़ों से जुड़ाव ,युवाओं को अपनी भाषा, संस्कृति और इतिहास का गहरा ज्ञान हो। लोककला, लोकसंगीत, कृषि और हस्तशिल्प को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाए। 3. डिजिटल साक्षरता और आलोचनात्मक सोच ,सूचना के अंबार में से सही और गलत को परखने की क्षमता विकसित की जाए। 4. रोजगार और आत्मनिर्भरता. ‘जॉब-सीकर’ की बजाय ‘जॉब-क्रिएटर’ मानसिकता। स्टार्टअप, इनोवेशन और सामाजिक उद्यमिता को शिक्षा से जोड़ा जाए।


शिक्षा और युवा, दोनों ही अगर अपनी दिशा सही कर लें तो भारत सिर्फ विकसित ही नहीं, बल्कि मार्गदर्शक राष्ट्र बन सकता है। हमें याद रखना होगा—
डिग्री कागज़ का टुकड़ा है, पर विचार राष्ट्र की असली मुद्रा है।
और जो युवा इस मुद्रा को पहचान लेगा, वही आने वाले भारत का निर्माता बनेगा.

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