संस्कारों की पुनःस्थापना का दीप — स्वामी दयानन्द विद्यालय का अनुकरणीय प्रयास


संस्कारों की पुनःस्थापना का दीप — स्वामी दयानन्द विद्यालय का अनुकरणीय प्रयास

बस्ती, उत्तरप्रदेश ,कौटिल्य वार्ता

बदलते समय में जब समाज भौतिकता की दौड़ में नैतिक मूल्यों से दूर होता जा रहा है, बस्ती के स्वामी दयानन्द विद्यालय, सुरतीहट्टा में आयोजित चतुर्थ दिवस का कार्यक्रम एक ताजगी भरी हवा के झोंके की तरह सामने आया। आर्य समाज के इस आयोजन में भजनों और प्रवचनों के माध्यम से न केवल ईश्वर-भक्ति का संदेश दिया गया, बल्कि जीवन जीने की एक व्यावहारिक और नैतिक पद्धति भी बच्चों और समाज के सामने रखी गई।

आचार्य विश्वव्रत जी ने पंच महायज्ञों — ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथि यज्ञ और बलिवैश्वदेवयज्ञ — को सरल शब्दों में समझाते हुए यह स्पष्ट किया कि ये केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि जीवन में संतुलन और सामाजिक जिम्मेदारी निभाने के सूत्र हैं। ईश्वर के प्रति आभार, पर्यावरण की रक्षा, माता-पिता का सम्मान, अतिथि सत्कार और जीव-जंतुओं के प्रति करुणा — यही वे मूल आधार हैं जिन पर एक स्वस्थ और सभ्य समाज का निर्माण संभव है।

कार्यक्रम का संचालन करते हुए ओम प्रकाश आर्य ने उचित ही कहा कि आर्य समाज का उद्देश्य केवल पूजा-पाठ तक सीमित नहीं, बल्कि समाज में संस्कारों की परंपरा को पुनः स्थापित करना है। यह विचार आज के समय में और भी प्रासंगिक हो जाता है, जब परिवारिक ताने-बाने और सामाजिक सौहार्द पर स्वार्थ और उपभोक्तावाद का दबाव बढ़ रहा है।

स्थानीय नागरिकों, विद्यार्थियों और अभिभावकों की सक्रिय भागीदारी यह प्रमाण है कि यदि आयोजनों का संदेश सार्थक और जीवनोपयोगी हो, तो समाज उसमें पूरे मन से जुड़ता है।

यह आयोजन हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि समाज सुधार का सबसे प्रभावी तरीका केवल कानून या दंड नहीं, बल्कि बचपन से ही संस्कारों की शिक्षा है। आर्य समाज और ऐसे अन्य संगठनों को चाहिए कि इस तरह के कार्यक्रम गांव-गांव, मोहल्ला-मोहल्ला पहुंचाएं, ताकि अगली पीढ़ी न केवल शिक्षित, बल्कि संस्कारित भी बन सके।


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