संपादकीय
बस्ती, उत्तरप्रदेश से राजेंद्र नाथ तिवारी
तीनों हुए एक तो, अटलांटिक डगमगाया
(भारत–रूस–चीन की एका और पश्चिमी वर्चस्व का संभावित अवसान)
अमेरिकीदादागिरते ध्वस्त करने के लिए जरूरी है तीनों एक हों !दशकों से वैश्विक सत्ता-संतुलन एक अघोषित एकध्रुवीयता में सिमटा हुआ था — केंद्र अमेरिका, माध्यम डॉलर, औजार नाटो, और नैरेटिव "लोकतंत्र बनाम तानाशाही" का। लेकिन अब इतिहास करवट लेने को व्याकुल है। भारत, रूस और चीन— ये तीनों यदि राजनीतिक–आर्थिक एका के सूत्र में बांध दिए जाएं, तो विश्व का नक्शा बदले बिना भी उसकी धुरी खिसक सकती है।
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप एक तरफ फिर से व्हाइट हाउस की सीढ़ियाँ नापने की कोशिश कर रहे हैं और दूसरी ओर यूरेशिया में नई समीकरणों की आँच उन्हें अटलांटिक में गोते लगाने को विवश कर सकती है। भारत की रणनीतिक आत्मनिर्भरता, रूस की ऊर्जा सम्पन्नता और चीन की औद्योगिक उत्पादन क्षमता— ये तीनों यदि मिलकर अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय ढांचे और भूराजनैतिक गठबंधनों की पुनर्रचना करें, तो पश्चिमी जगत को केवल नैतिक प्रवचन का सहारा ही शेष रहेगा।
यह सिर्फ भू-राजनीति नहीं, भू-संस्कृति का उदय भी है। भारत अपने ‘विश्वगुरु’ संकल्प के साथ अब भू-राजनीति का धर्मचक्र घुमा सकता है। रूस, पश्चिमी दमन के विरुद्ध एक ऐतिहासिक शक्ति-स्मृति है, और चीन, यद्यपि संशयास्पद, किन्तु वैश्विक निवेश और औद्योगिक पूंजी का निर्विवाद स्रोत बन चुका है।
यदि ये तीनों राष्ट्र डॉलर के वर्चस्व को चुनौती देते हुए वैकल्पिक करेंसी, वैकल्पिक इंटरनेट संरचना, वैकल्पिक सुरक्षा मंच खड़ा करें — तो फिर न सिर्फ वाशिंगटन पोस्ट के संपादकीय घबराएंगे, बल्कि नाटो के सेनापति भी अपनी नींद हराम पाएंगे।
इस संभावित एका में भारत की भूमिका निर्णायक है। यह देश न तो समाजवादी रूस की तरह पूर्ण सत्ता-नियंत्रण चाहता है, न चीन की तरह साम्यवादी निगरानी। भारत एक लोकतांत्रिक संतुलन की धुरी बन सकता है — जो पूरब और पश्चिम, दोनों से संवाद करते हुए एक वैकल्पिक वैश्विक नैतिकता की स्थापना करे।
वर्तमान समय में पश्चिम, खासकर अमेरिका, भले अभी भी स्वयं को विश्व का केंद्र माने — लेकिन विश्व अब बहुध्रुवीयता की ओर अग्रसर है। और यदि यह त्रिदेव (भारत–रूस–चीन) एकमत हुए, तो यह संभावना नहीं, आवश्यकता बन जाएगी कि पश्चिम को अब संवाद के लहजे और नीति के केंद्र दोनों बदलने हों .