आईजीआरएस – शिकायत निस्तारण या डिजिटल लॉलीपॉप?
– बस्ती समीक्षा बैठक के बहाने जन-शिकायत प्रणाली की पड़ताल
बस्ती, 07 अगस्त 2025 को जिलाधिकारी रवीश गुप्ता की अध्यक्षता में आयोजित साप्ताहिक आईजीआरएस (एकीकृत शिकायत निवारण प्रणाली) की समीक्षा बैठक में जो तथ्य सामने आए, वे न केवल जनपद की प्रशासनिक कार्यसंस्कृति पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं, बल्कि प्रदेश की शिकायत निस्तारण प्रणाली की असलियत भी उजागर करते हैं।
बैठक में यह पाया गया कि 29 जुलाई से 04 अगस्त 2025 तक प्राप्त शिकायतों के संदर्भ में 19 अधिकारियों एवं उनके अधीनस्थों द्वारा शिकायतकर्ताओं से संवाद नहीं किया गया। मात्र टेबल रिपोर्ट बनाकर उसे पोर्टल पर अपलोड कर दिया गया। यह प्रवृत्ति गहरी चिंता का विषय है। आईजीआरएस जैसी प्रणाली का उद्देश्य जनसुनवाई को तकनीक के माध्यम से सहज, पारदर्शी और उत्तरदायी बनाना था। लेकिन अब यह मात्र एक डिजिटल खानापूर्ति का माध्यम बनती जा रही है।
शिकायतकर्ता को कॉल तक न किया जाना, बिना मौके की जांच के "निस्तारित" टैग लगा देना, और फिर शिकायतकर्ता की असंतुष्टि को नजरअंदाज कर देना – यह सब दर्शाता है कि आईजीआरएस एक लॉलीपॉप व्यवस्था बन गई है, जहाँ समाधान नहीं बल्कि सिर्फ औपचारिक जवाब मिलता है।
इससे भी गंभीर बात यह है कि जिलाधिकारी द्वारा बार-बार चेतावनी देने के बावजूद इन अधिकारियों के व्यवहार में कोई ठोस परिवर्तन नहीं आ रहा है। यह प्रशासनिक ढिलाई ही नहीं, जनता के प्रति उत्तरदायित्वहीनता भी है। अपर जिलाधिकारी को अब कारण बताओ नोटिस जारी करने का निर्देश दिया गया है, लेकिन विगत अनुभव बताते हैं कि ऐसी चेतावनियाँ प्रायः कागजों में सिमटकर रह जाती हैं।
आईजीआरएस की रैंकिंग सुधारना यदि अधिकारियों का एकमात्र उद्देश्य रह गया है, तो यह प्रणाली अपने लक्ष्य से पूरी तरह भटक चुकी है। जब समाधान के बजाय "निपटा दिया" और "जांच जारी है" जैसे वाक्य आम हो जाएँ, तो यह लोकतांत्रिक संवाद की विफलता है।
इसलिए अब समय आ गया है कि आईजीआरएस को सिर्फ पोर्टल पर टिक करने वाली व्यवस्था न मानते हुए, इसे मानव-केंद्रित, संवादपरक और जवाबदेह बनाया जाए। हर शिकायत के समाधान में मौके की पुष्टि, प्रमाण सहित निस्तारण रिपोर्ट, और शिकायतकर्ता की संतुष्टि को प्राथमिक मापदंड बनाया जाए।
वरना जनता के बीच यह धारणा और गहराएगी कि "आईजीआरएस केवल लॉलीपॉप है – असल समाधान तो कभी होता ही नहीं।"
यह किसी एक जनपद की कहानी नहीं, एक व्यवस्था की दुर्दशा का सच है। अब अगर इसे सुधारने का साहसिक निर्णय नहीं लिया गया, तो जनता और शासन के बीच विश्वास की डोर और अधिक कमजोर होगी.