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"बेलगाम जननायक या संवैधानिक बाध्यताओं की अवहेलना? –
राहुल गांधी और चुनाव आयोग की प्रतिष्ठा पर प्रश्न"
लेखक: राजेंद्र नाथ तिवारी,बस्ती उत्तरप्रदेश से
संविधान — भारत की आत्मा और व्यवस्था की अंतिम चौकी — किसी एक व्यक्ति, एक परिवार या एक विचारधारा से ऊपर है। यह विडंबना ही है कि जिस संविधान की दुहाई बारंबार विपक्ष देता है, उसी संविधान की मर्यादाओं को तोड़ने की छूट वह स्वयं को देता है। राहुल गांधी, कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष, एक उत्तरदायित्वविहीन उत्तराधिकारी के रूप में, निरंतर भारतीय लोकतंत्र की गरिमा को चुनौती देते आ रहे हैं। और विडंबना यह है कि चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था पर बार-बार ‘लोकतंत्र की हत्या’ का आरोप लगाकर उसे न केवल कटघरे में खड़ा किया जा रहा है, बल्कि उसका मनोबल भी गिराने का प्रयास हो रहा है।
क्या राहुल गांधी संविधान से ऊपर हैं?
राहुल गांधी के बयानों और व्यवहार में एक निरंतर प्रवृत्ति दिखाई देती है — वे न तो किसी जवाबदेही को स्वीकारते हैं, न ही उन्हें अपने शब्दों के प्रभाव का बोध होता है। चुनाव के मौसम में वे भाषा की मर्यादा का उल्लंघन करते हैं, संस्थाओं की निष्पक्षता पर हमला करते हैं, और जनादेश को "लोकतंत्र की हत्या" की उपमा देकर जनता के विवेक पर ही प्रश्नचिन्ह लगा देते हैं।
यह कोई एक बार की बात नहीं। जब सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें मानहानि के एक मामले में राहत दी थी, तब उन्होंने न ही कोर्ट के प्रति सम्मान जताया और न ही क्षमा याचना की। उनकी राजनीति अब एक ढीठ बागी की शैली में तब्दील हो चुकी है, जो हर हार को "संस्थागत साजिश" बता देता है।
चुनाव आयोग: आलोचना का निशाना या संस्थागत धैर्य का प्रतीक?
भारतीय चुनाव आयोग दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में निष्पक्ष चुनावों का प्रहरी है। लेकिन दुर्भाग्य से, पिछले कुछ वर्षों से विपक्ष, विशेषकर कांग्रेस, ने चुनाव आयोग पर लगातार ‘पक्षपात’ और ‘सत्ता के इशारे पर काम करने’ के आरोप लगाए हैं — बिना किसी ठोस साक्ष्य के।
राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने कई बार EVM को दोषी ठहराया, जबकि सर्वोच्च न्यायालय व तकनीकी विशेषज्ञ EVM की सुरक्षा की पुष्टि करते रहे हैं। यह दृष्टिकोण न केवल संस्थागत अविश्वास को बढ़ावा देता है, बल्कि लोकतंत्र की जड़ों को खोखला करता है।
अब प्रश्न यह उठता है — क्या चुनाव आयोग को अपने ऊपर उठने वाली इस 'राजनीतिक बंदूक' के विरुद्ध आत्मरक्षा का अधिकार नहीं है?
क्या उसे यह अधिकार नहीं कि वह विध्वंसकारी और निराधार आलोचना के दांत तोड़ने के लिए कठोर कार्रवाई करे?
एक ज़हर उगलते दांत को तोड़ना जरूरी है
राजनीतिक मतभेद लोकतंत्र की आत्मा हैं, लेकिन जब मतभेद संस्थाओं के चरित्र हनन और सार्वजनिक भ्रम के हथियार बन जाएं, तो उन्हें रोकना आवश्यक हो जाता है। राहुल गांधी के बयान अब “स्वतंत्र अभिव्यक्ति” के दायरे से बाहर जाकर एक “राजनैतिक असंवेदनशीलता और विध्वंसक नैरेटिव” का रूप ले चुके हैं।
यह अब केवल एक पार्टी का मामला नहीं, यह लोकतंत्र की संस्थाओं की विश्वसनीयता का प्रश्न बन चुका है।
अगर हर हार पर आयोग को दोषी ठहराया जाएगा, तो कल न्यायपालिका, मीडिया, सेना — कोई भी संस्था सुरक्षित नहीं बचेगी। और यह अविश्वास, धीरे-धीरे लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदल देगा।
अब समय है कि आयोग दिखाए अपनी रीढ़
राहुल गांधी जैसे राजनेता जिन्हें 'राजनीतिक संरक्षण' का लंबे समय से लाभ मिला है, अब उन्हें यह समझाने की आवश्यकता है कि संविधान ‘असहमति’ की रक्षा करता है, ‘अराजकता’ की नहीं।
चुनाव आयोग को भी अब वह सख्ती दिखानी चाहिए जो उसकी गरिमा और निष्पक्षता की रक्षा करे।
उसे कानूनी और संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग करते हुए, ऐसे नेताओं पर आचार संहिता उल्लंघन, संस्थागत बदनामी, और दुष्प्रचार फैलाने के आरोप में कार्रवाई करनी चाहिए।
लोकतंत्र में कोई भी नेता, चाहे कितना भी लोकप्रिय हो या किसी वंश का हो — संविधान से ऊपर नहीं हो सकता।
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राजनीतिक उत्तेजना