बस्ती, उत्तरप्रदेश से राजेंद्र नाथ तिवारी
संसद में महाभियोग की बात सुनते ही लगता है, जैसे कोई बॉलीवुड मसाला फिल्म का ट्रेलर शुरू हो गया हो। मगर अफसोस, यहाँ न तो हीरो की एंट्री में तालियाँ हैं, न विलेन की साजिश में रोमांच। बस, एक उबाऊ नाटक है, जो हर बार स्क्रिप्ट भूलकर अधूरा रह जाता है। कुछ राजनीतिक दल तो ऐसे हैं, जैसे स्कूल के ड्रामे में वो बच्चा, जो अपनी लाइन भूलकर मंच पर बस चेहरा लटकाए खड़ा रहता है।
महाभियोग की प्रक्रिया, जो संविधान का गंभीर हथियार मानी जाती है, यहाँ तो नेताओं के लिए बस एक और मौका है अपनी कुर्सी की रस्साकशी खेलने का। कोई प्रस्ताव लाता है, कोई उसे ठंडे बस्ते में डाल देता है। जनता ताकती रह जाती है, जैसे कोई सास-बहू सीरियल देख रही हो, जिसका क्लाइमेक्स कभी नहीं आता। कुछ दल तो ऐसे हैं, जो महाभियोग की बात सुनते ही नैतिकता का पाठ पढ़ाने लगते हैं, मगर अपने गिरेबान में झाँकने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।
संसद में यह तमाशा देखकर लगता है, जैसे कोई ग्राम पंचायत का झगड़ा हो, जहाँ सब अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग अलाप रहे हैं। जनता के मुद्दे? अरे, वो तो बस चुनावी रैलियों के लिए बचे हैं! महाभियोग जैसे गंभीर मसले को भी कुछ दल वोटों की सियासत में उलझा देते हैं। नतीजा? नाकामी का ठीकरा संसद के माथे, और जनता के हिस्से सिर्फ निराशा।
तो भैया, अगली बार जब महाभियोग की बात हो, तो संसद से निवेदन है—या तो पूरा ड्रामा करो, या फिर मंच खाली करो। जनता को और कितना इंतज़ार करवाओगे?
संसद में महाभियोग की बात सुनते ही लगता है, जैसे कोई बॉलीवुड मसाला फिल्म का ट्रेलर शुरू हो गया हो। मगर अफसोस, यहाँ न तो हीरो की एंट्री में तालियाँ हैं, न विलेन की साजिश में रोमांच। बस, एक उबाऊ नाटक है, जो हर बार स्क्रिप्ट भूलकर अधूरा रह जाता है। कुछ राजनीतिक दल तो ऐसे हैं, जैसे स्कूल के ड्रामे में वो बच्चा, जो अपनी लाइन भूलकर मंच पर बस चेहरा लटकाए खड़ा रहता है।
महाभियोग की प्रक्रिया, जो संविधान का गंभीर हथियार मानी जाती है, यहाँ तो नेताओं के लिए बस एक और मौका है अपनी कुर्सी की रस्साकशी खेलने का। कोई प्रस्ताव लाता है, कोई उसे ठंडे बस्ते में डाल देता है। जनता ताकती रह जाती है, जैसे कोई सास-बहू सीरियल देख रही हो, जिसका क्लाइमेक्स कभी नहीं आता। कुछ दल तो ऐसे हैं, जो महाभियोग की बात सुनते ही नैतिकता का पाठ पढ़ाने लगते हैं, मगर अपने गिरेबान में झाँकने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।
संसद में यह तमाशा देखकर लगता है, जैसे कोई ग्राम पंचायत का झगड़ा हो, जहाँ सब अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग अलाप रहे हैं। जनता के मुद्दे? अरे, वो तो बस चुनावी रैलियों के लिए बचे हैं! महाभियोग जैसे गंभीर मसले को भी कुछ दल वोटों की सियासत में उलझा देते हैं। नतीजा? नाकामी का ठीकरा संसद के माथे, और जनता के हिस्से सिर्फ निराशा।
तो भैया, अगली बार जब महाभियोग की बात हो, तो संसद से निवेदन है—या तो पूरा ड्रामा करो, या फिर मंच खाली करो। जनता को और कितना इंतज़ार करवाओगे?
लगता है अधिकांश सांसद , संसद में पहुंचकर लोक मान्यताओं का निरादर करने से तनिक भी परहेज नहीं कररहे .यह अवमानना डा अम्बेडकर,महात्मा गांधी सहित उन नेताओं की है जिन्होंने देश हिट में सर्वस्व न्योछावर कर दिया.
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संपादकीय
