मुस्कुराहटों का शहर और आत्महत्या की बाढ़!

 

मुस्कुराहटों का शहर और आत्महत्या की बाढ़!



मनोचिकित्सक की राय
मनोज श्रीवास्तव,लखनऊ, उत्तरप्रदेश 

लखनऊ, जिसे लोग प्यार से "मुस्कुराइए, आप लखनऊ में हैं" कहकर याद करते हैं, आज एक भयावह सच्चाई के सामने खड़ा है। मुस्कुराहटों की पहचान रखने वाले इस शहर में अचानक आत्महत्याओं की बाढ़ आ जाना केवल घटनाएं नहीं हैं, बल्कि समाज की गहरी बीमारी का संकेत हैं।

कुछ ही दिनों में आधा दर्जन से अधिक लोग अलग-अलग कारणों से मौत को गले लगा चुके हैं। कोई प्रेम-प्रसंग के दबाव में, कोई बेरोजगारी से त्रस्त होकर, कोई बीमारी से जूझते-जूझते थककर और कोई केवल अकेलेपन से टूटकर।

अकेलेपन की त्रासदी

बलरामपुर अस्पताल के मनोचिकित्सक डॉ. देवाशीष शुक्ल ने सही कहा कि जब परिवार संयुक्त हुआ करते थे तब ऐसी घटनाएं विरल थीं। लोग सुख-दुख साझा करते थे, चर्चा करते थे, समाधान ढूंढ़ते थे। अब परिवार छोटे हो गए हैं, लोग और भी छोटे दायरे में सिमट गए हैं और सबसे अधिक संकुचित हो गया है व्यक्ति का मन

आज हर कोई मोबाइल स्क्रीन और निजी व्यस्तताओं में कैद है। संवाद की जगह "seen at" और "last seen" ने ले ली है। नतीजा यह कि जब अवसाद बढ़ता है तो उसे रोकने वाला, सुनने वाला, बांटने वाला कोई नहीं मिलता।


मुस्कान का छलावा

लखनऊ की टैगलाइन "मुस्कुराइए" आज एक खोखला मज़ाक लगती है। यह मुस्कान चेहरों पर है, लेकिन भीतर तनाव, अवसाद और निराशा का सैलाब बह रहा है।
समाज ने मिलनसारिता खो दी है, परिवार ने आपसी संवाद खो दिया है और व्यक्ति ने अपनी जिजीविषा।


जिम्मेदारी किसकी?

आत्महत्या केवल व्यक्तिगत हार नहीं है, यह समाज की सामूहिक विफलता है।

  • जब एक बेरोजगार युवक पंखे से लटकता है, तो यह शासन की नीतिगत असफलता है।
  • जब प्रेम-प्रसंग सामाजिक दबाव के कारण मौत तक ले जाता है, तो यह हमारी रूढ़ मानसिकता की विफलता है।
  • जब बीमारी से जूझता इंसान इलाज से पहले ही जीवन से हार मान लेता है, तो यह हमारे स्वास्थ्य तंत्र की नाकामी है।

रास्ता क्या है?

  1. संवाद की संस्कृति लौटे – घर-परिवार में लोग एक-दूसरे से बात करें, ध्यान दें।
  2. मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता मिले – सरकार और समाज दोनों को मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं सुलभ करनी होंगी।
  3. सहानुभूति और सहयोग – हम सबको एक-दूसरे की समस्याओं को सुनने और समझने की आदत डालनी होगी।

निष्कर्ष

लखनऊ को केवल मुस्कुराहटों का शहर कह देने से मुस्कानें नहीं लौटेंगी। मुस्कान तभी लौटेगी जब हम संवाद, सहानुभूति और सहयोग की संस्कृति को पुनर्जीवित करेंगे। वरना, यह शहर धीरे-धीरे मुस्कुराहटों से अधिक आंसुओं के लिए पहचाना जाने लगेगा। 

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