राम की मर्यादा,कृष्ण की नीति और शंकर का मस्तिष्क,संघ शताब्दी वर्ष और राष्ट्रीय पुनर्जागरणजागरण

 


राम की मर्यादा, कृष्ण की नीति और शंकर का मस्तिष्क :स्वयंसेवक

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सांस्कृतिक साधना और भारत का पुनर्जागरण



भारत का इतिहास केवल राजसिंहासनों का नहीं, बल्कि आत्मा की साधना और राष्ट्रधर्म की यात्रा है।
यदि भारतीय जीवन-दर्शन को तीन सूत्रों में बांधना हो तो वह है—राम की मर्यादा, कृष्ण की नीति और शंकर का मस्तिष्क। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने अपने संगठन और कार्यपद्धति में इन तीनों को आत्मसात कर भारत के सांस्कृतिक पुनर्जागरण की धुरी बनाया है। आज जब संघ अपने शताब्दी वर्ष (1925–2025) की ओर अग्रसर है, यह प्रश्न स्वाभाविक है कि—संघ ने भारत को क्या दिया? और क्यों उसकी आवश्यकता आज पहले से अधिक है?

राम की मर्यादा : 

अनुशासन और धर्म का आदर्श राम केवल राजा नहीं, बल्कि मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। उनका जीवन त्याग, संयम और धर्मपालन का आदर्श है। संघ ने इस मर्यादा को अपने कार्य में उतारा। डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने संघ की स्थापना करते समय स्वयंसेवकों के जीवन में अनुशासन को सर्वोच्च रखा। समय की पाबंदी, राष्ट्रधर्म के लिए त्याग, व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर संगठन और समाज का हित।

गुरुजी गोलवलकर ने इस मर्यादा को और गहराई दी। उन्होंने स्पष्ट कहा कि संघ का कार्य सत्ता प्राप्त करना नहीं है, बल्कि समाज को संगठित करना और राष्ट्र की आत्मा को सशक्त बनाना है।

जहाँ कांग्रेस सत्ता के लोभ में सिद्धांतों को त्यागती रही और पश्चिमी विचारधारा "स्वतंत्रता" के नाम पर अराजकता का प्रचार करती रही, संघ ने राम का यह अनुशासन जीवित रखा।

कृष्ण की नीति : यथार्थ और लोकमंगल का संतुलन

कृष्ण केवल लीला पुरुषोत्तम नहीं, बल्कि महाभारत के महान रणनीतिकार भी हैं। उनकी नीति हमें सिखाती है कि समाज रक्षा हेतु साम-दाम-दंड-भेद का संतुलन आवश्यक है। संघ ने भी यही सीखा। संगठन कौशल, परिस्थिति अनुसार निर्णय क्षमता, और लोककल्याण हेतु कठोरता—सब संघ की कार्यपद्धति में कृष्ण की नीति के दर्शन कराते हैं।

आपातकाल (1975-77) इसका उदाहरण है। जब लोकतंत्र का गला घोंटा गया, तब संघ के स्वयंसेवकों ने लोकतंत्र की रक्षा के लिए जेलें भरीं। इंदिरा गांधी की तानाशाही के सामने संघ के अनुशासित और साहसी स्वयंसेवक लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रहरी बनकर खड़े हुए। जहाँ कांग्रेस अवसरवाद और परिवारवाद में डूबी रही, संघ ने कृष्ण की नीति से राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखा।

शंकर का मस्तिष्क : ध्यान, विवेक और एकात्मता

भगवान शिव का मस्तिष्क ध्यान और करुणा का प्रतीक है। आदि शंकराचार्य ने अद्वैत वेदांत के माध्यम से खंडित भारत को एकसूत्र में बाँधा। संघ की बौद्धिक परंपरा इसी शंकर परंपरा की उत्तराधिकारी है। गुरुजी गोलवलकर और दत्तोपंत ठेंगड़ी जैसे मनीषियों ने दर्शन और संगठन को एक सूत्र में बांधा। संघ की शाखा केवल व्यायामशाला नहीं, बल्कि अध्ययन, चिंतन और राष्ट्र की आत्मा से जुड़ने का केंद्र भी है। जहाँ पश्चिमी शिक्षा ने भारतीयों को अपनी जड़ों से काटा, संघ ने शंकर की चेतना से उन्हें पुनः जोड़ा।

संघ और सांस्कृतिक पुनर्जागरण

1925 में स्थापित संघ आज शताब्दी वर्ष के अवसर पर खड़ा है।सौ वर्षों की यात्रा में संघ ने केवल शाखाएँ ही नहीं लगाईं, बल्कि राष्ट्र के प्रत्येक क्षेत्र में सांस्कृतिक जागरण फैलाया। सेवा कार्यों में योगदान : उत्तराखंड, गुजरात, केरल से लेकर ओडिशा तक प्राकृतिक आपदाओं में स्वयंसेवक सबसे पहले राहत कार्य में पहुँचे। सामाजिक समरसता : डॉ. भीमराव अंबेडकर के साथ संवाद से लेकर “समरसता भोज” की परंपरा तक, संघ ने जाति-भेद मिटाने का कार्य किया। शैक्षिक और सांस्कृतिक संस्थान : वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती, विद्या भारती जैसे संगठन आज लाखों लोगों को शिक्षा और संस्कार दे रहे हैं। राष्ट्रीय राजनीति पर प्रभाव : जनसंघ से लेकर भारतीय जनता पार्टी तक, लोकतांत्रिक राजनीति में राष्ट्रहित को जीवित रखने की प्रेरणा संघ से ही मिली। यह वही संघ है जिसे कांग्रेस ने बार-बार प्रतिबंधित किया, अपमानित किया, और पश्चिमी विचारक "फासीवादी" कहकर बदनाम करने लगे। लेकिन संघ ने धैर्य, मर्यादा और नीति से यह सिद्ध किया कि उसका लक्ष्य केवल सत्ता नहीं, बल्कि राष्ट्र की आत्मा का पुनर्जागरण है संघ.

संघ में सबका समुच्चय

राम की मर्यादा हमें स्थिरता देती है, कृष्ण की नीति हमें कठिन परिस्थितियों में मार्ग दिखाती है और शंकर का मस्तिष्क हमें ज्ञान और एकात्मता प्रदान करता है।
संघ ने इन तीनों को आत्मसात कर यह सिद्ध किया कि भारत का पुनर्जागरण केवल राजनीतिक शक्ति से नहीं होगा; वह होगा संस्कृति और संगठन की शक्ति से। आज जब संघ शताब्दी वर्ष (2025) की ओर बढ़ रहा है, यह कहना उचित है कि— राम का अनुशासन, कृष्ण की रणनीति और शंकर का अद्वैत—इन्हीं से भारत का वास्तविक पुनर्जागरण संभव है, और इन्हीं का आधुनिक प्रतिनिधि है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ।


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