विभाजन की प्रेतछाया,कांग्रेस के माथे का अमिट कलंक

 


विभाजन की प्रेतछाया और कांग्रेस

बस्ती, उत्तरप्रदेश से राजेंद्र नाथ तिवारी


भारत का इतिहास जितना गौरवशाली है, उतना ही दर्दनाक भी। आज़ादी का 15 अगस्त 1947 जितना उल्लास का दिन था, उतना ही मातम का भी। एक ओर गुलामी की जंजीरें टूटीं, दूसरी ओर विभाजन की तलवार ने देश की आत्मा को चीरा। लाखों लाशें, करोड़ों विस्थापित और बिखरी सभ्यता — यही वह विरासत है जिसे हम विभाजन की त्रासदी कहते हैं। इस त्रासदी का सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि आखिर इसका कलंक कौन ढोए?

कांग्रेस आज़ादी की सबसे बड़ी वाहक पार्टी मानी जाती है। उसका नेतृत्व महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल जैसे महान नेताओं के हाथ में था। मगर क्या यह भी उतना ही बड़ा सच नहीं है कि विभाजन का अंतिम निर्णय कांग्रेस की मुहर से ही हुआ? कांग्रेस ने माउंटबेटन योजना को स्वीकार किया, अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने विभाजन का प्रस्ताव पारित किया और सत्ता पाने की जल्दी में अखंड भारत का सपना बिखर गया।

यह सही है कि अंग्रेजों ने "फूट डालो और राज करो" की नीति अपनाई और मुस्लिम लीग ने अलग पाकिस्तान की जिद ठान ली थी। लेकिन सवाल यह है कि क्या कांग्रेस आख़िरी दम तक इस विभाजन को रोकने की कोशिश करती रही? इतिहासकार मानते हैं कि 1946 का कैबिनेट मिशन प्लान भारत को एकजुट रख सकता था। किंतु नेहरू की हठधर्मिता और राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने हालात को इतना बिगाड़ दिया कि जिन्ना को अलग रास्ता चुनना आसान हो गया। गांधी जी स्वयं विभाजन से व्यथित थे, पर कांग्रेस का नेतृत्व अंततः “अनिवार्य बुराई” कहकर इसे स्वीकार कर बैठा।

यही कारण है कि विभाजन की प्रेतछाया आज भी कांग्रेस के साथ है। सत्ता प्राप्ति के मोह ने नैतिक साहस को ढक लिया। कांग्रेस ने आज़ादी का श्रेय तो बटोर लिया, लेकिन विभाजन की जिम्मेदारी से बचने के लिए उसने पाठ्यपुस्तकों और इतिहास में इस सच्चाई को दबा दिया। यही वजह है कि स्कूलों में हमें यही पढ़ाया गया कि विभाजन केवल अंग्रेजों और मुस्लिम लीग की चाल थी। कांग्रेस का कोई दोष नहीं। पर सच को दबा देने से वह समाप्त नहीं होता।

79 वर्ष बाद भी यह छाया कांग्रेस का पीछा करती है। जब-जब विभाजन की त्रासदी याद की जाती है, तब-तब यह सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस के नेताओं ने सत्ता की कुर्सी को राष्ट्र की एकता से ऊपर रखा? क्या अखंड भारत का सपना सत्ता के लालच में कुर्बान कर दिया गया?

कांग्रेस यदि इस कलंक को स्वीकार कर लेती, तो शायद इतिहास उसका आकलन और संतुलित तरीके से करता। लेकिन उसने मौन साध लिया। परिणाम यह हुआ कि विभाजन के जख्मों का दर्द तो जनता ने भोगा, पर कांग्रेस ने अपने माथे से यह कलंक हटाने की असफल कोशिश की।

निष्कर्ष यही है कि विभाजन कांग्रेस की आत्मा पर एक ऐसा धब्बा है जिसे चाहे जितना इतिहास में दबा दिया जाए, वह मिटने वाला नहीं। आज़ादी का सूरज कांग्रेस की गोद से निकला जरूर, पर उसी के साथ विभाजन का अंधकार भी उसकी परछाई बन गया। यही विभाजन की प्रेतछाया है, जो कांग्रेस के साथ हमेशा चलती रहेगी।


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