"चुनाव आयोग: प्रहरी की ढाल में सुराख"
राजेंद्र नाथ तिवारी
भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत उसका चुनाव आयोग माना जाता है—एक ऐसी संवैधानिक संस्था, जो चुनाव की पवित्रता और जनता के विश्वास की प्रहरी है। लेकिन आज का दृश्य कुछ और कहानी कह रहा है। प्रहरी हाथ में ढाल लिए खड़ा तो है, पर ढाल में इतने सुराख हो चुके हैं कि सामने वाले को हँसी आ जाए और पीछे वाले को डर।
कभी ऐसा समय था जब चुनाव आयोग का नाम सुनते ही नेता जी की आवाज़ लड़खड़ा जाती थी, भाषणों की भाषा बदल जाती थी, और चुनाव प्रचार में हर शब्द तौला जाता था। आचार संहिता तोड़ने का मतलब था तत्काल नोटिस, जवाब-तलब और जुर्माना। मगर आज, मंच से खुलेआम धमकियाँ, धर्म-जाति के नाम पर वोट मांगने के बयान, सरकारी मशीनरी का खुलेआम दुरुपयोग—सब कुछ जनता देख रही है, और आयोग? आयोग भी देख रहा है। फर्क बस इतना है कि जनता सवाल पूछ रही है और आयोग मौन है।
EVM पर सवाल उठे—कभी हैकिंग की चर्चा, कभी वोटिंग मशीनों के ‘यात्रा’ पर पकड़े जाने के वीडियो—तो उम्मीद थी कि आयोग तलवार खींचकर साफ-साफ जवाब देगा। लेकिन जवाब की जगह एक लंबा-चौड़ा प्रेस नोट आता है, जिसमें शब्द ज्यादा और तर्क कम होते हैं। जैसे बच्चा होमवर्क के बजाय ‘बहाने’ की डायरी जमा कर दे।
आचार संहिता लागू होते ही विपक्षी नेताओं पर बिजली की गति से कार्रवाई और सत्ता पक्ष के लिए धीमे-धीमे ‘संवेदनशील’ जांच—ये दोहरी गति जनता के विश्वास की जड़ें हिला देती है। आयोग के पुराने मुखिया टी.एन. शेषन को याद कीजिए—जिन्होंने चुनाव सुधार के लिए नेताओं की नींद हराम कर दी थी। और अब के आयोग को देखिए—जिन्होंने शायद नींद की गोलियों का थोक स्टॉक ले लिया है।
"अपनी रक्षा करने में अक्षम" होना केवल बाहरी आलोचना का सामना न कर पाना नहीं है, बल्कि अपने ही निर्णयों का बचाव न कर पाना, अपनी निष्पक्षता को प्रमाणित न कर पाना और जनता को यह भरोसा न दिला पाना है कि लोकतंत्र का ताला अभी सही चाबी से खुलता है।
अगर प्रहरी ही कमजोर हो जाए, तो लोकतंत्र की दीवारें गिरने में देर नहीं लगती।
आज आयोग को यह तय करना होगा—वह इतिहास में "निर्भीक प्रहरी" के रूप में दर्ज होना चाहता है, या "मूक दर्शक" के रूप में, जिसने लोकतंत्र की ढाल पर लगे छेद भरने की कोशिश ही नहीं की।
राजेंद्र नाथ तिवारी
भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत उसका चुनाव आयोग माना जाता है—एक ऐसी संवैधानिक संस्था, जो चुनाव की पवित्रता और जनता के विश्वास की प्रहरी है। लेकिन आज का दृश्य कुछ और कहानी कह रहा है। प्रहरी हाथ में ढाल लिए खड़ा तो है, पर ढाल में इतने सुराख हो चुके हैं कि सामने वाले को हँसी आ जाए और पीछे वाले को डर।
कभी ऐसा समय था जब चुनाव आयोग का नाम सुनते ही नेता जी की आवाज़ लड़खड़ा जाती थी, भाषणों की भाषा बदल जाती थी, और चुनाव प्रचार में हर शब्द तौला जाता था। आचार संहिता तोड़ने का मतलब था तत्काल नोटिस, जवाब-तलब और जुर्माना। मगर आज, मंच से खुलेआम धमकियाँ, धर्म-जाति के नाम पर वोट मांगने के बयान, सरकारी मशीनरी का खुलेआम दुरुपयोग—सब कुछ जनता देख रही है, और आयोग? आयोग भी देख रहा है। फर्क बस इतना है कि जनता सवाल पूछ रही है और आयोग मौन है।
EVM पर सवाल उठे—कभी हैकिंग की चर्चा, कभी वोटिंग मशीनों के ‘यात्रा’ पर पकड़े जाने के वीडियो—तो उम्मीद थी कि आयोग तलवार खींचकर साफ-साफ जवाब देगा। लेकिन जवाब की जगह एक लंबा-चौड़ा प्रेस नोट आता है, जिसमें शब्द ज्यादा और तर्क कम होते हैं। जैसे बच्चा होमवर्क के बजाय ‘बहाने’ की डायरी जमा कर दे।
आचार संहिता लागू होते ही विपक्षी नेताओं पर बिजली की गति से कार्रवाई और सत्ता पक्ष के लिए धीमे-धीमे ‘संवेदनशील’ जांच—ये दोहरी गति जनता के विश्वास की जड़ें हिला देती है। आयोग के पुराने मुखिया टी.एन. शेषन को याद कीजिए—जिन्होंने चुनाव सुधार के लिए नेताओं की नींद हराम कर दी थी। और अब के आयोग को देखिए—जिन्होंने शायद नींद की गोलियों का थोक स्टॉक ले लिया है।
"अपनी रक्षा करने में अक्षम" होना केवल बाहरी आलोचना का सामना न कर पाना नहीं है, बल्कि अपने ही निर्णयों का बचाव न कर पाना, अपनी निष्पक्षता को प्रमाणित न कर पाना और जनता को यह भरोसा न दिला पाना है कि लोकतंत्र का ताला अभी सही चाबी से खुलता है।
अगर प्रहरी ही कमजोर हो जाए, तो लोकतंत्र की दीवारें गिरने में देर नहीं लगती।
आज आयोग को यह तय करना होगा—वह इतिहास में "निर्भीक प्रहरी" के रूप में दर्ज होना चाहता है, या "मूक दर्शक" के रूप में, जिसने लोकतंत्र की ढाल पर लगे छेद भरने की कोशिश ही नहीं की।