आरटीआई की हकीकत: सूचना का अधिकार या उपहास का अधिकार,: जब कानून मौन हो जाए

 आरटीआई की हकीकत: सूचना का अधिकार या उपहास का अधिकार?


(राज्य सूचना आयुक्त बनाम RTI एक्टिविस्ट - समाधानकर्ता या समस्या के सहभागी?)



भूमिका: जब कानून मौन हो जाए

 
सरकार ने 2005 में ,जनता को वास्तविक लोकतंत्र का भान सूचना का अधिकार एक सशक्त लाठी जनता को सौंप दी थी पार नौकर शाही,राजनेता  ओर त्रिस्तरीय पंचायत को स्वीकार्य  न होसका. उसी की परिणति हमारे
सामने है.पूरा सिस्टम अंतर्विरोधों से अबद्ध हो गया है,कोई किसी की भी नहीं सुनता.
जब सूचना का अधिकार अधिनियम (RTI Act) आया, तो लगा कि भारत में लोकतंत्र ने एक नई साँस ली है। नागरिकों को अधिकार मिला कि वे सरकार से सवाल पूछ सकें। और उत्तर न मिलने पर राज्य सूचना आयुक्तों के दरवाजे खटखटा सकें।

लेकिन बीते वर्षों में यह लोकशक्ति का हथियार, कई बार या तो प्रशासन की उपेक्षा में जंग खा गया है या फिर ब्यूरोक्रेसी और आयुक्तों की उदासीनता में धुँधला हो गया है।

राज्य सूचना आयुक्त: न्याय की प्रतीक्षा या शिथिलता का केंद्र?

राज्य सूचना आयोगों की स्थिति स्वयं एक सूचनात्मक त्रासदी है:

केस लंबित रहने की दर कई राज्यों में 2-3 साल तक पहुँच गई है।


आयोगों में नियुक्तियाँ राजनीतिक हैं, पारदर्शी नहीं। कई बार पूर्व नौकरशाहों या राजनीतिक चेहरों को "सम्मानजनक रिटायरमेंट पोस्टिंग" के रूप में यह कुर्सी दी जाती है।

कई आयुक्तों को RTI कानून की बारीक समझ नहीं होती, न ही उनका झुकाव पारदर्शिता की ओर होता है।

परिणामस्वरूप, सूचना मांगने वाला आम नागरिक आयोगों से समाधान नहीं, निराशा लेकर लौटता है।


RTI एक्टिविस्ट: बदलाव के वाहक या उत्पीड़न के शिकार?

RTI कार्यकर्ताओं ने सैकड़ों घोटाले उजागर किए हैं — राशन, मनरेगा, शिक्षा, स्वास्थ्य, जमीन घोटाले। लेकिन यही सच बोलने की कीमत चुकानी पड़ती है:

2005 से अब तक दर्जनों RTI कार्यकर्ता मारे जा चुके हैं।

कई राज्यों में FIR, झूठे मुकदमे, गुंडागर्दी, और सरकारी दुश्मनी का सामना करते हैं।

न कोई सुरक्षा, न ही कार्यकर्ता की पहचान का संरक्षण।


एक्टिविस्ट सूचना मांगते हैं, और सरकार उन्हें "अस्थिर तत्व" मानती है।


कानून: निष्प्रभावी या जानबूझकर कमजोर किया गया?

RTI कानून में बहुत सारी ताकत है, लेकिन सरकारें उसे लागू न करने की रणनीति में माहिर हो गईं:

1. पैरा 4 की स्वप्रकाशन (suo moto disclosure) की धारा लागू नहीं होती।

2. पेनल्टी rarely लगती है, अधिकांश मामलों में अफसर दोषी होते हुए भी बचे रहते हैं।

3. राज्य आयोगों की स्वायत्तता संकट में है, बजट और स्टाफ की भारी कमी है।

यह सब मिलकर RTI को एक दंतहीन शेर बनाते हैं।


सरकारी उपेक्षा और उपहास: एक दुखद विडंबना

सरकारें RTI को एक ‘अवरोधक’ की तरह देखती हैं, न कि लोकतंत्र के औजार की तरह।

जवाब टालने के लिए "सूचना उपलब्ध नहीं", "फाइल गुम", "संबंधित नहीं" जैसे उत्तर आम हो गए हैं।

कई बार अफसर RTI मांगने वालों को हँसी, व्यंग्य या डर से जवाब देते हैं।

आयोगों की सुनवाई में आम नागरिक को न्यायालय जैसी जटिलता से गुजरना पड़ता है।

: सवाल अब भी जीवित है — RTI एक अधिकार है या याचना?

सूचना का अधिकार एक जनतांत्रिक क्रांति था, जिसे सत्ताओं ने धीरे-धीरे सड़ा दिया।

आज जब राज्य सूचना आयुक्त सुप्त प्रहरी बने हुए हैं और RTI कार्यकर्ता बलिदान प्रतीक, तब यह पूछना जरूरी हो गया है:

 "क्या RTI के जरिए हम सरकार को जवाबदेह बना पाए या यह कानून खुद एक लाचार दस्तावेज बन चुका है?"

मार्मिक प्रश्न:

क्या RTI अब केवल कुछ सजग नागरिकों की व्यथा कथा बनकर रह गया है?

क्या सूचना आयुक्त समस्याओं के समाधानकर्ता हैं या विलंब और उदासीनता के प्रतीक?

और क्या इस लोकतांत्रिक औजार को नया जीवन देने के लिए कोई नई लड़ाई जरूरी है?

राजेंद्र नाथ तिवारी

2 Comments

Previous Post Next Post

Contact Form