संपादकीय:
तहखानों में पलता षड्यंत्र और हमारी उदासीनता,राजेन्द्र नाथ तिवारी
बलरामपुर के छांगुर प्रकरण ने एक बार फिर हमें झकझोर कर रख दिया है। जमालुद्दीन उर्फ़ छांगुर पीर ने केवल धर्मांतरण नहीं कराया, बल्कि एक सुनियोजित अभियान चलाया — जिसमें दुबई से कट्टर विचारधारा के मौलाना बुलाए गए, और "गुर्गों" को प्रशिक्षित किया गया कि कैसे देवताओं का अपमान किया जाए और हिंदू समाज के भीतर वैचारिक विष घोला जाए।
यह मामला किसी साधारण अपराध का नहीं, सांस्कृतिक आतंकवाद का है — जिसमें शस्त्र नहीं, बल्कि शब्द और सोच को हथियार बनाया गया।
छांगुर की हवेली के तहखाने इस सभ्यता पर चल रही अघोषित युद्धभूमि के गुप्त बंकर थे। वहां न तो बम बनते थे, न ही गोलियां — पर वहां ऐसे विचार गढ़े जाते थे, जो किसी बम से भी ज्यादा घातक होते हैं। और हैरानी की बात यह है कि यह सब वर्षों तक चलता रहा — और समाज मौन रहा।
हमें यह स्वीकार करना होगा कि हिंदू समाज की उदासीनता, उसकी सहिष्णुता की सीमा पार कर चुकी है।
सहिष्णुता तब तक पुण्य है जब तक वह धर्म रक्षा में बाधक न बने।
लेकिन आज हम एक ऐसे दौर में पहुंच चुके हैं जहाँ सहनशीलता ने समर्पण का रूप ले लिया है।
आखिर क्यों हर बार जब कोई तहखाना खुलता है — हमें लगता है "हमें तो कुछ पता ही नहीं था"?
क्यों समाज ने ऐसे तत्वों के खिलाफ पहले से कोई वैचारिक दीवार नहीं खड़ी की?
और सबसे बड़ा प्रश्न — क्या आने वाले कल में हम एक और छांगुर को बनने से रोक पाएंगे?
-
समाज को चाहिए — जागरूकता, संगठन और वैचारिक आत्मबल।
1. धार्मिक चेतना का पुनर्जागरण करें।
2. कट्टरता और सॉफ्ट टेरर के विरुद्ध वैचारिक युद्ध लड़ें।
3. कानून और समाज — दोनों स्तर पर सजग रहें।
4. धर्म को निजी आस्था नहीं, सार्वजनिक उत्तरदायित्व भी मानें।
छांगुर का अपराध जितना बड़ा है, उससे कई गुना बड़ा अपराध हमारी चुप्पी है।
अब समय है कि हम दीवारों की दरार नहीं, तहखानों की गहराई देखना शुरू करें।
क्योंकि खतरा छत से नहीं, नींव से उठता है — और वो नींव हम सब की आस्था है।
✍️ — सम्पादक
कौटिल्य का भारत दैनि
बलरामपुर के छांगुर प्रकरण ने एक बार फिर हमें झकझोर कर रख दिया है। जमालुद्दीन उर्फ़ छांगुर पीर ने केवल धर्मांतरण नहीं कराया, बल्कि एक सुनियोजित अभियान चलाया — जिसमें दुबई से कट्टर विचारधारा के मौलाना बुलाए गए, और "गुर्गों" को प्रशिक्षित किया गया कि कैसे देवताओं का अपमान किया जाए और हिंदू समाज के भीतर वैचारिक विष घोला जाए।
यह मामला किसी साधारण अपराध का नहीं, सांस्कृतिक आतंकवाद का है — जिसमें शस्त्र नहीं, बल्कि शब्द और सोच को हथियार बनाया गया।
छांगुर की हवेली के तहखाने इस सभ्यता पर चल रही अघोषित युद्धभूमि के गुप्त बंकर थे। वहां न तो बम बनते थे, न ही गोलियां — पर वहां ऐसे विचार गढ़े जाते थे, जो किसी बम से भी ज्यादा घातक होते हैं। और हैरानी की बात यह है कि यह सब वर्षों तक चलता रहा — और समाज मौन रहा।
हमें यह स्वीकार करना होगा कि हिंदू समाज की उदासीनता, उसकी सहिष्णुता की सीमा पार कर चुकी है।
सहिष्णुता तब तक पुण्य है जब तक वह धर्म रक्षा में बाधक न बने।
लेकिन आज हम एक ऐसे दौर में पहुंच चुके हैं जहाँ सहनशीलता ने समर्पण का रूप ले लिया है।
आखिर क्यों हर बार जब कोई तहखाना खुलता है — हमें लगता है "हमें तो कुछ पता ही नहीं था"?
क्यों समाज ने ऐसे तत्वों के खिलाफ पहले से कोई वैचारिक दीवार नहीं खड़ी की?
और सबसे बड़ा प्रश्न — क्या आने वाले कल में हम एक और छांगुर को बनने से रोक पाएंगे?
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समाज को चाहिए — जागरूकता, संगठन और वैचारिक आत्मबल।
1. धार्मिक चेतना का पुनर्जागरण करें।
2. कट्टरता और सॉफ्ट टेरर के विरुद्ध वैचारिक युद्ध लड़ें।
3. कानून और समाज — दोनों स्तर पर सजग रहें।
4. धर्म को निजी आस्था नहीं, सार्वजनिक उत्तरदायित्व भी मानें।
छांगुर का अपराध जितना बड़ा है, उससे कई गुना बड़ा अपराध हमारी चुप्पी है।
अब समय है कि हम दीवारों की दरार नहीं, तहखानों की गहराई देखना शुरू करें।
क्योंकि खतरा छत से नहीं, नींव से उठता है — और वो नींव हम सब की आस्था है।
✍️ — सम्पादक
कौटिल्य का भारत दैनि