सनातन परंपरा और चातुर्मास: संयम, साधना और संतुलन का काल

 


सनातन परंपरा और चातुर्मास: संयम, साधना और संतुलन का काल
डॉ दिव्या तिवारी

भारत की सांस्कृतिक परंपराएं केवल आस्थाओं पर आधारित नहीं, बल्कि जीवन को संतुलित और सार्थक बनाने वाली जीवन-पद्धतियाँ हैं। सनातन धर्म की परंपराओं में एक विशेष महत्व रखता है – चातुर्मास। यह न केवल धार्मिक आस्था का समय है, बल्कि एक गहरे वैज्ञानिक और सामाजिक विवेक से जुड़ा हुआ कालखंड है।

चातुर्मास संस्कृत का शब्द है, जिसका अर्थ है "चार मास"। यह काल आषाढ़ शुक्ल एकादशी (देवशयनी एकादशी) से आरंभ होकर कार्तिक शुक्ल एकादशी (प्रबोधिनी एकादशी) तक चलता है। मान्यता है कि इस समय भगवान विष्णु योगनिद्रा में चले जाते हैं, और देवकार्य भी ठहर जाते हैं। इसलिए यह काल विवाह, यात्रा और उत्सव जैसे मांगलिक कार्यों के लिए वर्जित माना गया है।

यह समय साधना, संयम और आत्मनिरीक्षण का है। ऋषियों और तपस्वियों की परंपरा रही है कि वे वर्षा ऋतु में बाहर भ्रमण न कर किसी एक स्थान पर निवास करते थे और शास्त्रों का अध्ययन व प्रवचन करते थे। यह परंपरा आज भी धर्मगुरुओं के ‘चातुर्मास व्रत’ के रूप में जीवंत है।

स्वास्थ्य की दृष्टि से भी, यह समय विशेष सावधानी का है। वर्षा ऋतु में जलजनित रोग, कमजोर पाचन शक्ति और संक्रमण का खतरा अधिक होता है। इसलिए चातुर्मास में तामसिक भोजन, बाहर भ्रमण और भारी आहार से परहेज़ का निर्देश दिया गया है।

आज के भौतिकतावादी युग में, जब जीवन भागमभाग और असंयम से भरा हुआ है, चातुर्मास की परंपरा हमें ठहरने, सोचने और सुधरने का अवसर देती है। यह सनातन संस्कृति का ऐसा पक्ष है जो आत्म-संयम के माध्यम से सामाजिक और मानसिक शुद्धि की ओर ले जाता है।

इसलिए चातुर्मास केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि आत्मविकास और जीवन अनुशासन का आध्यात्मिक मौसम है — जिसे आज की पीढ़ी को फिर से अपनाने की आवश्यकता है।

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