व्यवस्था पर करारी चोट : PET परीक्षा में सख़्ती या व्यवस्थागत विफलता?
बस्ती,लखनऊ
उत्तर प्रदेश में पीईटी परीक्षा के दौरान हुई "अत्यधिक सख़्ती"—पायल, बाली, जुड़ा खुलवाकर चेकिंग, पानी की बोतल का रैपर तक उतरवाना—सरकार की उस मजबूरी की तस्वीर है, जिसमें नौ सॉल्वर पकड़े जाने के बाद प्रशासन ने दिखावटी चौकसी का चाबुक चलाया। लेकिन यह चौकसी जितनी सतही है, उतनी ही परीक्षा व्यवस्था की जड़ों तक धंसी भ्रष्टाचार और लापरवाही पर करारी चोट करती है।
परीक्षा में नकल रोकने का दावा करने वाली मशीनरी दरअसल पहले ही फेल हो चुकी थी। जब सॉल्वर गिरोह सेंटरों तक पहुँच जाते हैं, तो यह सुरक्षा का मखौल नहीं तो और क्या है? बाद में परीक्षार्थियों के गहने-जुड़े उतरवाकर या बोतलों के रैपर छीलवाकर किया गया प्रदर्शन, प्रशासन की उसी असफलता को ढकने का प्रयास है। यह "सुरक्षा" नहीं, बल्कि व्यवस्थागत अविश्वास है, जिसमें हर परीक्षार्थी को संदिग्ध की नज़र से देखा जाता है।
असल समस्या यह है कि भर्ती परीक्षाओं के नाम पर वर्षों से बेरोज़गार युवाओं को असुरक्षा और अपमान के कटघरे में खड़ा कर दिया गया है। लाखों उम्मीदवार उम्मीद और पसीना बहाकर परीक्षा देने जाते हैं, और प्रशासन उन्हें अपराधी की तरह जांच-पड़ताल से गुज़ारता है। इसका संदेश साफ है—सरकार अपनी नाकामी को ढकने के लिए जनता पर ही कठोरता का बोझ डाल रही है।
व्यवस्था की कमजोरी वहाँ है जहाँ पेपर लीक होते हैं, जहाँ सेंटर तय करने में गिरोहों की पकड़ रहती है, और जहाँ परीक्षा माफ़िया बार-बार बेख़ौफ़ सक्रिय हो जाते हैं। लेकिन इलाज वहाँ खोजा जा रहा है जहाँ असली बीमारी नहीं है। यह सख़्ती बेरोज़गार युवाओं के मनोबल को तोड़ती है और उन्हें यह एहसास कराती है कि व्यवस्था उन पर भरोसा नहीं करती।
असली आक्रामक व्याख्या यही है—यह पूरा प्रकरण सरकार और उसकी परीक्षा प्रणाली की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न है। जितनी मेहनत छात्रों से पायल और बोतल उतरवाने में लगाई जा रही है, उतनी ही ईमानदारी से अगर परीक्षा माफ़ियाओं की जड़ें काटी जातीं, तो आज यह अपमानजनक स्थिति पैदा ही न होती।