संपादकीय ,राजेंद्र नाथ तिवारी,बस्ती,उत्तर प्रदेश
कौटिल्य ने कहा था—“राज्य का संचालन योग्यतम व्यक्ति करे।” आज के नेता कहते हैं—“राज्य का संचालन मेरी जाति करे, चाहे अयोग्यतम ही क्यों न हो!” भारत के लोकतंत्र की यही सबसे बड़ी त्रासदी है। कौटिल्य ने जाति को केवल सामाजिक पहचान माना, शासन के लिए उन्होंने योग्यता और राष्ट्रहित को सर्वोच्च रखा। परंतु आज के राजनीतिक दलों ने जाति को वोटों की तिजोरी बना लिया है।
सत्ता का गणित देखिए— उम्मीदवार तय होगा जाति देखकर।टिकट बँटेगा जाति देखकर। मंत्रिमंडल बनेगा जाति देखकर। योग्यता? ईमानदारी? राष्ट्रहित? ये सब शब्द नेताओं की डिक्शनरी से गायब हो चुके हैं। जिस आरक्षण का उद्देश्य पिछड़ों को आगे लाना था, उसे नेताओं ने अपनी जातीय खेती सींचने का औजार बना दिया है। समाज की खाई पाटने की बजाय वे उसे और गहरी कर रहे हैं, क्योंकि जितनी गहरी खाई, उतना पक्का वोट बैंक।
उत्तर भारत की राजनीति "यादव-राजपूत-ब्राह्मण-कुर्मी" ,अनु के जाल में फँसी है, दक्षिण में "लिंगायत-रेड्डी-वोक्कालिगा" की गिनती चल रही है। मानो देश कोई राष्ट्र न होकर जातियों का मेला हो, जहाँ हर जाति का ठेला अलग खड़ा है। नेता वहीं जाते हैं जहाँ ठेले पर वोट ज्यादा मिलते हों। और मज़े की बात देखिए—जो नेता दिन-रात "जातिवाद खत्म करने" की बात करते हैं, वही चुनाव आते ही जातिगत समीकरण में ऐसे गोता लगाते हैं जैसे मछली पानी में।
कौटिल्य की दृष्टि ने मौर्य साम्राज्य खड़ा किया, हमारे जाति-व्यापारी नेताओं की दृष्टि ने लोकतंत्र को मंडी बना दिया।
आज ज़रूरत है कि राजनीति कौटिल्य के मार्ग पर लौटे—जहाँ सत्ता का आधार गुण और कर्म हो, न कि जाति और वंश। लेकिन शायद ऐसा कहना आज के दलों के लिए गाली से भी बड़ा अपराध है, क्योंकि उनकी पूरी दुकान जाति पर टिकी है।
भारत को या तो कौटिल्य चाहिए, या जाति के सौदागर।सीदोनों एक साथ नहीं चल सकते।
सत्ता का गणित देखिए— उम्मीदवार तय होगा जाति देखकर।टिकट बँटेगा जाति देखकर। मंत्रिमंडल बनेगा जाति देखकर। योग्यता? ईमानदारी? राष्ट्रहित? ये सब शब्द नेताओं की डिक्शनरी से गायब हो चुके हैं। जिस आरक्षण का उद्देश्य पिछड़ों को आगे लाना था, उसे नेताओं ने अपनी जातीय खेती सींचने का औजार बना दिया है। समाज की खाई पाटने की बजाय वे उसे और गहरी कर रहे हैं, क्योंकि जितनी गहरी खाई, उतना पक्का वोट बैंक।
उत्तर भारत की राजनीति "यादव-राजपूत-ब्राह्मण-कुर्मी" ,अनु के जाल में फँसी है, दक्षिण में "लिंगायत-रेड्डी-वोक्कालिगा" की गिनती चल रही है। मानो देश कोई राष्ट्र न होकर जातियों का मेला हो, जहाँ हर जाति का ठेला अलग खड़ा है। नेता वहीं जाते हैं जहाँ ठेले पर वोट ज्यादा मिलते हों। और मज़े की बात देखिए—जो नेता दिन-रात "जातिवाद खत्म करने" की बात करते हैं, वही चुनाव आते ही जातिगत समीकरण में ऐसे गोता लगाते हैं जैसे मछली पानी में।
कौटिल्य की दृष्टि ने मौर्य साम्राज्य खड़ा किया, हमारे जाति-व्यापारी नेताओं की दृष्टि ने लोकतंत्र को मंडी बना दिया।
आज ज़रूरत है कि राजनीति कौटिल्य के मार्ग पर लौटे—जहाँ सत्ता का आधार गुण और कर्म हो, न कि जाति और वंश। लेकिन शायद ऐसा कहना आज के दलों के लिए गाली से भी बड़ा अपराध है, क्योंकि उनकी पूरी दुकान जाति पर टिकी है।
भारत को या तो कौटिल्य चाहिए, या जाति के सौदागर।सीदोनों एक साथ नहीं चल सकते।
कौटिल्य (चाणक्य/कौटिल्य) ने जाति व्यवस्था को जिस प्रकार देखा और उसका उपयोग किया, वह आज के भारत के राजनीतिक परिदृश्य से सीधी तुलना की जा सकती है. कौटिल्य का वास्तविक जोर जन्म पर नहीं, बल्कि कर्तव्य और योग्यता (गुण और कर्म) पर था।
अर्थशास्त्र में उन्होंने वर्णव्यवस्था को स्वीकार अवश्य किया, लेकिन शासन और प्रशासन में केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय या किसी जाति की प्राथमिकता नहीं रखी।
वे लिखते हैं कि— "राज्य की रक्षा और प्रजा के हित में राजा किसी भी व्यक्ति को उसकी योग्यता के अनुसार नियुक्त कर सकता है।"
शूद्र और स्त्रियों को भी राज्य-प्रशासन में भागीदारी देने का उल्लेख मिलता है।
कौटिल्य का दृष्टिकोण था कि जाति व्यवस्था सामाजिक-धार्मिक परंपरा हो सकती है, परंतु राज्य व्यवस्था में योग्यता ही अंतिम कसौटी है।
जाति और राजनीति: आज का भारत
आज भारतीय राजनीति में जाति एक वोट बैंक और सत्ता का समीकरण है।
स्वतंत्रता के बाद से जाति को मिटाने का संकल्प लिया गया था, लेकिन लोकतांत्रिक राजनीति ने इसे नया जीवन दिया। जातिगत आरक्षण, जाति-आधारित दल, सामाजिक न्याय की राजनीति—इन सबने जाति को समानता का नहीं बल्कि सत्ता का औजार बना दिया।
आज लगभग हर दल की रणनीति जातिगत समीकरण से तय होती है—जैसे उत्तर भारत में यादव, जाटव, कुर्मी, ब्राह्मण, राजपूत, बनिया आदि की राजनीति; दक्षिण में वोक्कालिगा, लिंगायत, रेड्डी, नादर आदि समूह।
कौटिल्य बनाम आज की राजनीति
कौटिल्य की व्यवस्था आज का परिदृश्य ,मूल आधार योग्यता और कर्तव्य जन्म और जाति पहचान ,राजनीतिक प्राथमिकता प्रजा का हित, सामरिक शक्ति, अर्थव्यवस्था जातिगत समीकरण, चुनावी जीत नियुक्ति प्रणाली कोई भी योग्य व्यक्ति राज्य का अंग बन सकता है दल टिकट जाति गणित देखकर देते हैं जाति का उपयोग समाज की स्थिरता हेतु, पर शासन में सीमित सत्ता हथियाने का औजार.
आज के लिए सबक
यदि कौटिल्य के सिद्धांत अपनाए जाएं, तो जाति राजनीति का केंद्र न रहकर केवल सांस्कृतिक-सामाजिक पहचान तक सीमित रहे। शासन व नेतृत्व में मेरिट और नैतिकता सर्वोपरि हों। जाति-आधारित आरक्षण की बजाय आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन को आधार बनाया जाए। राजनीति का स्वरूप जातिगत समीकरण से ऊपर उठकर राष्ट्रहित और नीति-नैतिकता की ओर जाए।
कौटिल्य के लिए जाति व्यवस्था एक सामाजिक ढांचा थी, जबकि राज्य व्यवस्था योग्यता-आधारित थी। आज भारत की राजनीति उलटी दिशा में खड़ी है—यहाँ राज्य व्यवस्था भी जातिगत समीकरणों से संचालित हो रही है।
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