“बस्ती का मदरसा कांड: प्रशासन की मिलीभगत या कर्तव्यहीनता?”
बस्ती जनपद का कप्तानगंज — यहाँ का मदरसा दारुल उलूम अहले सुन्नत फेज़नवी एक ऐसा ज्वलंत उदाहरण बन चुका है, जो उत्तर प्रदेश सरकार की आईजीआरएस योजना को ठेंगा दिखा रहा है। जिस योजना को मुख्यमंत्री ने जनता की शिकायतों का त्वरित समाधान और पारदर्शिता का प्रतीक बताया था, उसी योजना को तहसील हरैया, जिला प्रशासन और हल्का लेखपाल ने मजाक बना कर रख दिया है।
जमीन और भवन पर विवाद, कब्रिस्तान की आड़, और मदरसे की चारदीवारी में निस्वा जामिया का संचालन—यह सब कुछ कागज़ों में दर्ज है, शिकायतों में स्पष्ट है, न्यायपालिका तक मामला पहुँच चुका है। फिर भी जिला प्रशासन मौन क्यों है? क्या यह मौन उनकी मिलीभगत का सबूत नहीं है?
शासनादेश कहता है कि एक-एक इंच भूमि का सत्यापन तहसील स्तर पर होना चाहिए। लेकिन कप्तानगंज के इस मदरसे में वर्षों से विवाद पल रहा है और हल्का लेखपाल तक आंख मूंदे बैठा है। आखिर यह ढिलाई क्यों? क्या यह कर्तव्यहीनता है, या फिर इस खेल में सरकारी अफसरों की जेबें गर्म हो रही हैं
प्रश्न सीधा है—जब गरीब जनता आईजीआरएस के सहारे न्याय की उम्मीद में दरख़्त पर चढ़ती है, तब अधिकारी उसी शाखा को काट क्यों देते हैं? शिकायतें महीनों से घूम रही हैं। आदेश जारी होते हैं, फिर ठंडे बस्ते में डाल दिए जाते हैं। क्या मुख्यमंत्री की योजनाओं की यही दुर्दशा होनी चाहिए?
यह सिर्फ मदरसे का विवाद नहीं, बल्कि व्यवस्था की सड़ांध का आईना है। अगर कप्तानगंज के इस मामले में तुरंत सख़्त कार्रवाई नहीं हुई, तो यह संदेश जाएगा कि प्रशासनिक मशीनरी अब पूरी तरह गिरवी रख दी गई है।
जनता का सवाल है—क्या मुख्यमंत्री की घोषणाएँ सिर्फ मंचीय भाषणों तक सीमित हैं, या फिर बस्ती जैसे जिलों में भी उनका राज चलता है?
अब फैसला मुख्यमंत्री को करना है। या तो वे अपने आईजीआरएस की साख बचाएँ, या फिर यह मान लें कि नीचे तक उनकी योजनाएँ सिर्फ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ने के लिए हैं। कप्तानगंज का यह प्रकरण जनता को याद दिलाता रहेगा कि जब प्रशासन सो जाता है, तो जनता न्यायपालिका का दरवाज़ा खटखटाती है।
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क्या चाहेंगे कि मैं इस सम्पादकीय को पोस्टर/पर्चा शैली में नारेदार भाषा में भी बदल दूँ, ताकि यह सीधे विद्यार्थियों और आम जनता को संबोधित लगे?