योगी सरकार में मंत्री ही धरने पर, अफसरशाही के आगे नतमस्तक राजनीति!



योगी सरकार में मंत्री ही धरने पर, अफसरशाही के आगे नतमस्तक राजनीति!


मनोज श्रीवास्तव, लखनऊ।
उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार एक विचित्र प्रशासनिक विरोधाभास से जूझ रही है, जहाँ सत्ता पक्ष के ही मंत्री अब अपनी ही सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतरकर धरना देने को विवश हो रहे हैं। पंद्रह दिन के भीतर यह दूसरा मामला है, जब सरकार का मंत्री अपनी ही शासन व्यवस्था की विफलताओं पर आक्रोश जताते हुए धरने पर बैठा।

ताज़ा प्रकरण सीतापुर जिले का है, जहाँ कारागार राज्यमंत्री सुरेश राही ने 20 दिन से खराब पड़े ट्रांसफॉर्मर की शिकायत बिजली विभाग से की, लेकिन उनके साथ जो व्यवहार हुआ, वह प्रदेश की अफसरशाही की निरंकुशता को उजागर कर देता है। मंत्री जी जब क्षेत्रीय जेई रमेश कुमार मिश्रा से ट्रांसफार्मर बदलवाने का आग्रह करते हैं, तो उत्तर मिलता है – “खुद आओ, ट्रांसफॉर्मर उतरवाओ और लगवाओ भी।” यह न सिर्फ मंत्री की अवमानना है, बल्कि लोकतंत्र की उस मूल भावना का भी अपमान है, जिसमें जनप्रतिनिधि जनता की समस्याओं के लिए जवाबदेह होते हैं और उन्हें प्रशासनिक सहयोग मिलना चाहिए।

गंभीर बात यह है कि मंत्री जी ने पहले पावर कॉर्पोरेशन की प्रबंध निदेशक रिया केजरीवाल को फोन किया, लेकिन उन्होंने कॉल उठाना तक ज़रूरी नहीं समझा। क्या यह दर्शाता है कि अफसरशाही अब राजनीतिक नेतृत्व को दरकिनार करने लगी है?

इससे भी अधिक चौंकाने वाला तथ्य यह है कि खुद ऊर्जा मंत्री एके शर्मा, जो प्रधानमंत्री मोदी के करीबी और गुजरात प्रशासन में लंबे समय तक कार्यरत रहे हैं, यह सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि “मैं एक जेई का भी ट्रांसफर नहीं कर सकता।” यह बयान न सिर्फ उनकी प्रशासनिक शक्तिहीनता को उजागर करता है, बल्कि यह भी सवाल खड़ा करता है कि क्या सत्ता वास्तव में मंत्रियों के पास है, या नौकरशाही ही प्रदेश की असली संचालक बन चुकी है?

इससे पहले 24 जुलाई को महिला कल्याण राज्यमंत्री प्रतिभा शुक्ला भी कानपुर देहात के एक थाने में एक कार्यकर्ता पर ग़लत मुक़दमा दर्ज होने से नाराज़ होकर धरने पर बैठ चुकी हैं। यह लगातार हो रही घटनाएं बताती हैं कि प्रदेश में राजनीतिक नेतृत्व और अफसरशाही के बीच संवाद और नियंत्रण की बड़ी खाई बन चुकी है।

यदि मंत्रीगण ही धरने पर बैठकर अपनी ही सरकार के खिलाफ आवाज़ उठाएं, तो आमजन की पीड़ा और प्रशासन की सुस्ती का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। यह स्थिति न केवल योगी सरकार की राजनीतिक विफलता है, बल्कि शासन की जवाबदेही पर भी गंभीर प्रश्नचिन्ह है। अगर जल्द ही इस टकराव को सुलझाया नहीं गया, तो जनता का विश्वास सरकार से और अधिक डगमगाएगा, और यह लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए शुभ संकेत नहीं है।


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