"संसद को गोशाला बनाना चाहते हैं शंकराचार्य? लोकतंत्र पर धार्मिक वर्चस्व थोपने की ज़िद!"
भारत जैसे लोकतांत्रिक, बहुलतावादी और संवैधानिक राष्ट्र में यदि संसद भवन जैसे राष्ट्रीय प्रतीक को किसी एक धार्मिक विचारधारा या प्रतीक के अधीन करने की मांग की जाए, तो यह मात्र एक धार्मिक आग्रह नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा पर सीधा प्रहार है। ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती का यह कहना कि "संसद भवन में सेंगोल के साथ-साथ असली गाय भी ले जानी चाहिए थी", इस संकुचित सोच का स्पष्ट उदाहरण है, जहाँ धार्मिक प्रतीकों को लोकतांत्रिक संस्थानों से ऊपर रखने की चेष्टा की जा रही है।
पगाय: आस्था बनाम थोपे हुए राष्ट्रवाद का प्रतीक
गाय भारतीय समाज में सदियों से श्रद्धा का विषय रही है। वह कृषि, अर्थव्यवस्था और संस्कृति से जुड़ी रही है, लेकिन जब इस सांस्कृतिक प्रतीक को राष्ट्रमाता घोषित करने की माँग की जाती है, या संसद भवन में उसकी प्रतीकात्मक नहीं, भौतिक उपस्थिति की बात की जाती है — तब यह एक सीमित आस्था को पूरे राष्ट्र की विचारधारा पर थोपने का कुप्रयास बन जाता है। क्या अब संसद भवन का उद्घाटन धार्मिक रीति-नीति और गाय के 'आशीर्वाद' के बिना अपवित्र माना जाएगा? क्या यह भविष्य में संवैधानिक संस्थाओं को धर्म की कसौटी पर तौलने की परंपरा की शुरुआत है?
धर्म का लोक-शक्ति पर वर्चस्व — एक खतरनाक संकेत
शंकराचार्य की यह बात कि “यदि गाय नहीं लाई गई तो हम पूरे देश से गायें संसद भवन में ले आएंगे”, सीधा-सीधा लोकतांत्रिक मर्यादा को चुनौती देना है। संसद किसी संप्रदाय, समुदाय या मठ की निजी संपत्ति नहीं है। यह देश की संप्रभुता, संविधान और जनमत का प्रतीक है।सीयदि कोई धार्मिक गुरु यह कहे कि संसद को किसी प्रतीक विशेष से पवित्र किया जाना आवश्यक है, तो यह लोकतंत्र के ‘पवित्र विचार’ की अस्वीकार्यता और धर्म के ‘शाब्दिक पवित्रता’ की जबरन स्थापना है। यह वही सोच है जो संविधान की जगह पुरोहितशाही और विवेक की जगह अंधानुकरण को प्रतिष्ठित करना चाहती है।
महाराष्ट्र सरकार को ‘गाय सम्मान प्रोटोकॉल’ बनाने का सुझाव — धर्म की आड़ में शासन को निर्देश?
शंकराचार्य ने महाराष्ट्र सरकार से गाय के सम्मान हेतु विधिसम्मत ‘प्रोटोकॉल’ बनाने की मांग की है। वे चाहते हैं कि इसका उल्लंघन होने पर दंड भी तय किया जाए। यह सुझाव नहीं, शासन को धार्मिक अधिनियमों से नियंत्रित करने का संकेत है। क्या यह भारत को धर्मशासित राज्य बनाने की भूमिका नहीं है?
धर्म संसद या लोकसभा? प्रतिनिधित्व किसका हो?
गाय को राष्ट्रमाता घोषित करने, हर विधानसभा क्षेत्र में “रामधाम” की स्थापना, और संसद भवन में गाय की उपस्थिति जैसी माँगें देश को एकरूप धार्मिक राष्ट्र में ढालने का प्रयत्न हैं। लोकतंत्र तब ही सफल होता है जब उसमें सभी मत, पंथ, विचार और असहमति के स्वर भी स्थान पाते हैं।
परंतु यह माँगें भारत की विविधता को नकारती हैं और एकरूपता के उन्माद में बहुलता को मिटा देना चाहती हैं।
लोकतंत्र की रक्षा धर्म के वर्चस्व से जरूरी है
भारत का संविधान धर्मनिरपेक्ष है। संसद कोई मंदिर, चर्च या मस्जिद नहीं, यह जनता की संप्रभुता का मंदिर है। यदि इसे किसी भी धर्म, मठ या परंपरा की शरण में ले जाया गया — तो लोकतंत्र की आत्मा दम तोड़ देगी। शंकराचार्य के इस बयान को मात्र धार्मिक उत्साह नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक चेतना को पोंगापंथ से कुचलने की एक रणनीति की तरह देखा जाना चाहिए। यदि आज इसका प्रतिकार नहीं किया गया, तो कल संसद में गाय के बाद शंख, फिर हवन, फिर पवित्र जल और अंततः विचारों पर भी पहरा लगाने की माँग की जाएगी।
यह समय है — जब भारत को पुनः याद दिलाना होगा:
"भार अभी एक धर्मशासित राष्ट्र नहीं, एक संवैधानिक राष्ट्र हैं।”
राजेंद्रनाथ तिवारी बस्ती उत्तर प्रदेश