“कृष्ण, तुम कब आओगे? हम तो कुरुक्षेत्र को टीवी डिबेट बना बैठे हैं”

 राजेंद्र नाथ तिवारी,बस्ती, उत्तरप्रदेश 



श्रीकृष्ण कब आओगे?

कभी-कभी लगता है कि गोकुल-मथुरा की गलियों में बांसुरी बजाने वाले श्रीकृष्ण आज अगर अचानक आ जाएँ, तो उन्हें सबसे पहले “जाँच एजेंसी” या “टीवी डिबेट” का सामना करना पड़ेगा। गोपियाँ तो अब व्हाट्सऐप ग्रुप में व्यस्त हैं, नंद बाबा का आँगन किसी सरकारी नोटिस से सील पड़ा है और गोकुल का तालाब अब ‘ड्रैगन फ्रूट परियोजना’ के लिए ठेकेदार को दे दिया गया है।

प्रश्न वही है—श्रीकृष्ण कब आओगे?

कौरव तो अब संसद में बहस करते दिखते हैं—एक-दूसरे की ओर उंगली उठाते, माइक्रोफोन खींचते और फिर मीडिया में बयानबाज़ी करते। दुर्योधन अब पब्लिक रिलेशन एजेंसी के साथ रहता है और शकुनि राजनीतिक सलाहकार बन गया है। पांडव बेचारे जनता की भीड़ में सेल्फी खिंचवाते घूमते हैं, पर उनकी आवाज़ किसी एल्गोरिदम में दब जाती है।

महा-भारत अब कुरुक्षेत्र में नहीं, टीवी चैनलों के प्राइम टाइम में लड़ा जाता है। एंकर चीख-चीख कर अर्जुन को समझाते हैं कि “तुम्हारा पक्ष गलत है, ब्रेक के बाद दिखाते हैं असली सच।” ऐसे में अगर कृष्ण आ भी जाएँ, तो गीता सुनाने से पहले उन्हें ट्विटर पर “ट्रेंड” बनाना होगा।

अब सोचिए—कृष्ण का मुरली-वादन कौन सुनेगा? शहर के शोर में तो ट्रैफिक का हॉर्न ही बांसुरी को निगल जाएगा। गोवर्धन उठाने की ज़रूरत नहीं—आज गोवर्धन की पहाड़ी पहले ही अवैध खनन में खोखली हो चुकी है। कालिया नाग को मारना भी व्यर्थ है—क्योंकि अब ज़हर सिर्फ यमुना में नहीं, हमारी राजनीति, शिक्षा और समाज की हर नस में बह रहा है।

कृष्ण, अगर तुम आओगे, तो तुम्हें सबसे पहले “क्लीन चिट” लेनी पड़ेगी, वरना कोई भी चैनल चीखेगा—“देखिए, ये हैं असली नकली भगवान, जो वोट के मौसम में अचानक प्रकट हुए।” अर्जुन अब गीता नहीं सुनना चाहता—वह चाहता है कि उसकी पार्टी का घोषणापत्र वायरल हो।

और हम सब? हम तो कृष्ण को पुकारते ज़रूर हैं, पर इस आशा में कि वे आकर हमारे व्यक्तिगत दुख मिटाएँ—पड़ोसी का भूसा चुरा लें, बैंक लोन माफ़ कर दें, नौकरी का इंटरव्यू पास करवा दें। लेकिन जब समाज को बदलने की बारी आती है, तो हम तुरंत कह देते हैं—“ये तो कृष्ण का काम है, हमारा नहीं।”

शायद इसलिए कृष्ण अब तक नहीं आए। वे सोचते होंगे—“जिस धरती पर लोग धर्म की रक्षा के लिए नहीं, बल्कि धर्म के नाम पर ठेके लेने लगे हैं; जहाँ युद्ध अन्याय के ख़िलाफ़ नहीं, कुर्सी के लिए होता है; जहाँ गोपियों का नृत्य अब ‘रियलिटी शो’ बन चुका है—वहाँ जाकर मैं भी क्या करूँ?”

तो सवाल वही है, पर जवाब बदल गया है। कृष्ण तभी आएँगे जब हम अपने भीतर छिपे अर्जुन को जगाएँगे। जब हम रणभूमि से भागना छोड़कर अन्याय के ख़िलाफ़ खड़े होंगे। वरना कृष्ण तो बांसुरी बजाते-बजाते हमें यूँ ही ताना मारते रहेंगे— “मैं आऊँ क्यों? तुम्हें अपनी लड़ाइयाँ खुद लड़नी सीखनी होंगी।”

पात्र काल्पनिक है संयोग से कोई अपने पर न ले.संपादक

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