आई.जी.आर.एस. : जनता की पीड़ा पर शासन की बेरुखी
बस्ती,लखनऊ मनोज श्रीवास्तव
उत्तर प्रदेश की आई.जी.आर.एस. (Integrated Grievance Redressal System) – यानी जनशिकायत निवारण प्रणाली – को बड़े दावे और शोरगुल के साथ लागू किया गया था। कहा गया कि अब आम जनता को न्याय और राहत पाने के लिए दफ्तर-दर-दफ्तर भटकना नहीं पड़ेगा। शिकायत ऑनलाइन दर्ज होगी और तय समय में उसका समाधान भी मिलेगा।
लेकिन हकीकत क्या है? यह प्रणाली जनता की आसाओं का कब्रिस्तान बन चुकी है। "निस्तारित" शब्द का तमगा लगाकर फाइलें बंद कर दी जाती हैं, पर शिकायत वहीं की वहीं पड़ी रहती है। जनता महीनों-बरसों तक न्याय की प्रतीक्षा करती है और अंततः टूटे विश्वास और निराशा के सिवा कुछ हाथ नहीं आता।
दिखावे की व्यवस्था, वास्तविक समाधान शून्य सच तो यह है कि आई.जी.आर.एस. शासन की औपचारिकता और प्रचार तंत्र से ज्यादा कुछ नहीं। आंकड़ों में लाखों शिकायतें "निस्तारित" दिखा दी जाती हैं, पर समाधान कितनों का हुआ? जनता जानती है कि यह खेल सिर्फ कागज़ी उपलब्धियों का है। यही वजह है कि अब लोग इस प्रणाली को "जनशिकायत निवारण" नहीं बल्कि "जनशिकायत उपेक्षा प्रणाली" कहने लगे हैं।
उपेक्षा का असर : लोकतंत्र पर सीधा हमला
जनता का भरोसा जब शासन से उठने लगता है, तो लोकतंत्र की आत्मा पर सीधी चोट होती है। न्याय नहीं मिलने से जनता का आक्रोश बढ़ता है। भ्रष्टाचारियों के हौसले बुलंद होते हैं। और शासन की नीतियाँ जनता की नजर में मज़ाक बन जाती हैं। क्या लोकतंत्र सिर्फ चुनाव के दिन वोट डालने तक सीमित है? क्या जनता की आवाज़ सिर्फ भाषणों और घोषणाओं में सुनने लायक है?
सरकार के लिए चेतावनी
यदि आई.जी.आर.एस. जैसी महत्वपूर्ण प्रणाली को सरकार ने केवल दिखावे का औजार बनाकर रखा, तो इसका नतीजा बेहद खतरनाक होगा। जनता का आक्रोश सड़क पर फूटेगा और यह असंतोष शासन की साख को चकनाचूर कर देगा।
राजनीति में सबसे बड़ा पूंजी जनता का विश्वास है। और आज यही विश्वास लगातार दरक रहा है।
समाधान का रास्ता
- उच्च स्तरीय समीक्षा : इस प्रणाली की तुरंत जांच और समीक्षा हो।
- जवाबदेही तय हो : सिर्फ "निस्तारित" लिख देने वाले अधिकारियों पर कड़ी कार्रवाई हो।
- व्यवहारिक पारदर्शिता : हर शिकायत का समाधान जनता की संतुष्टि तक हो, न कि केवल कागज़ पर।