राजनीति में आधुनिक शिशुपाल: का वध कब? एक साहित्यिक दृष्टि से विश्लेषण


 राजेंद्र नाथ तिवारी,बस्ती,उत्तर प्रदेश

राजनीति में आधुनिक शिशुपाल: का वध कब? एक साहित्यिक दृष्टि से विश्लेषण

भारतीय साहित्य, विशेष रूप से महाभारत जैसी कालजयी कृतियों में, पात्रों का उपयोग केवल कथा के लिए नहीं, बल्कि मानवीय प्रवृत्तियों के दर्पण के रूप में किया गया है। ऐसा ही एक पात्र है – शिशुपाल, जो दुराग्रह, दंभी वक्तव्यों, और सीमाहीन आलोचना का प्रतीक है। आज के राजनीतिक और कूटनीतिक परिदृश्य में जब हम यह सुनते हैं कि कोई व्यक्ति कभी चीन की पैरवी करता है, कभी ट्रंप (या ट्रफ) की लहर में बहता है, तो कभी पाकिस्तान के प्रति नरमी दिखाता है – तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यह वही पुराना शिशुपाल है, बस चेहरा नया है, मंच नया है।

प्रतीकों का प्रभावी प्रयोग:

  1. शिशुपाल – केवल एक पौराणिक पात्र नहीं बल्कि उस मानसिकता का प्रतीक है जो आलोचना को आदत बना लेती है, और राष्ट्रहित से अधिक स्वहित या विदेश-हित में रुचि रखती है।
    शिशुपाल की सबसे बड़ी विशेषता थी – सीमा की उपेक्षा, और यही विशेषता समकालीन राजनीति में कई बार देखने को मिलती है।

  2. चीन की तरफदारी – जब सीमा पर तनाव हो, जब सैनिकों की शहादत हो, और तब भी कोई चीन के प्रति नर्म रुख दिखाए या वहां की नीतियों को औचित्य प्रदान करे, तो यह राष्ट्रीय चेतना के विरुद्ध एक प्रकार का बौद्धिक अपराध बन जाता है।

  3. ट्रंप या ट्रफ (प्रतीक रूप में) – अमेरिका की नीति या उसके नेताओं के प्रति चाटुकारिता, जब भारत की स्वतंत्र नीति को प्रभावित करने लगे, तब वह कूटनीतिक आत्मसमर्पण जैसा प्रतीत होता है।
    यह वह मनोदशा है जो बाहरी शक्तियों की छाया में अपनी पहचान ढूंढती है, ठीक वैसे जैसे शिशुपाल दुर्योधन की शरण में न्याय की उपेक्षा करता था।

  4. पाकिस्तान की सहानुभूति – यह वह अंतिम रेखा है जहाँ राष्ट्र की पीड़ा, बलिदान और सुरक्षा की भावना को झुठलाते हुए कोई व्यक्ति यदि पड़ोसी देश को 'बेचारा' या 'भाई' साबित करने में जुट जाए, तो वह देशहित से अधिक मतहित या द्वेषहित में जी रहा है।

नैतिक पतन की शिशुपाली प्रवृत्ति:

शिशुपाल की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वह “गलतियों को जन्मसिद्ध अधिकार” मानता था। श्रीकृष्ण ने उसे सौ गलतियों की छूट दी थी, क्योंकि मित्रता का पुराना ऋण था। पर जब सौ पार हुआ, तब सुदर्शन चक्र चला।

आज की राजनीति में भी कुछ 'शिशुपाल' हैं जिन्हें गलती करने की खुली छूट मिलती रही – कभी विचार की आज़ादी के नाम पर, कभी अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के नाम पर, कभी तथाकथित सेकुलरिज़्म के नाम पर। लेकिन जब ये “राजनीतिक गलती” राष्ट्रहित की नींव को डगमगाने लगे, तब साहित्य का वह पुराना संदर्भ फिर से जीवंत हो उठता है।

श्रीकृष्ण की प्रतीक्षा:

आज का भारत एक चौराहे पर खड़ा है – जहाँ उसे अपने भीतर छिपे ‘श्रीकृष्ण’ को पहचानना होगा। वह श्रीकृष्ण जो न्याय के लिए नपे-तुले मौन को त्यागकर निर्णायक हस्तक्षेप करे। जो यह कहे – अब बहुत हुआ।

क्योंकि जब तक समाज, नीति, और जनता स्वयं इस शिशुपाली वृत्ति को सहती रहेगी, तब तक आलोचना, भ्रम और राष्ट्रविरोधी विमर्श हमारी राजनीति को दूषित करता रहेगा।

निष्कर्ष:

‘कभी चीन, कभी ट्रफ, कभी पाकिस्तान’ – यह पंक्ति केवल किसी व्यक्ति की विदेश नीति की भ्रमित दिशा नहीं दर्शाती, बल्कि यह एक चेतावनी है। यह उस प्रवृत्ति का विरोध है जो बार-बार राष्ट्रहित को कुचल कर, व्यक्तिगत या वैचारिक एजेंडे को ऊपर रखती है।

शिशुपाल अब प्रतीक्षा में नहीं है, वह सक्रिय है। प्रश्न यह है – क्या श्रीकृष्ण भी सक्रिय होंगे?



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