तुलसीदास की प्रासंगिकता और श्रीराम पर एक विवेचन

 

संत तुलसी जयंती पर विशेष,

तुलसीदास की प्रासंगिकता और श्रीराम पर एक विशाल विवेचन

राजेंद्र नाथ तिवारी
— एक सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक दृष्टिकोण से


साहित्य, संस्कृति और सनातन धर्म के अद्वितीय त्रिवेणी संगम तुलसीदास केवल एक कवि नहीं, बल्कि भारत की आत्मा के पुनर्जागरण के प्रमुख सूत्रधार रहे हैं। उनकी रचना रामचरितमानस केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि भारतीय मानस का दर्पण है, जिसमें श्रीराम केवल राजा नहीं, मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में जीवन के आदर्श प्रस्तुत करते हैं। आज के संकटपूर्ण, मूल्यविहीन समय में तुलसी और राम दोनों की प्रासंगिकता और भी बढ़ गई है।

तुलसीदास: एक युग-प्रवर्तक संत

  1. भाषा का लोकतंत्रीकरण:
    जब संस्कृत में रचे ग्रंथों पर केवल ब्राह्मणों का अधिकार था, तब तुलसी ने अवधी में रामचरितमानस रचकर राम को जन-जन तक पहुँचाया। वह भारतीय लोकतांत्रिक भावना के अग्रदूत थे।

  2. धर्म और भक्ति का पुनर्निर्माण:
    भक्तिकाल में जहां भक्ति को साधना और प्रेम से जोड़ा गया, वहीं तुलसी ने रामभक्ति को नीति, मर्यादा और कर्तव्य से जोड़ा।

  3. सामाजिक एकता के प्रतीक:
    रामचरितमानस में शबरी, केवट, निषाद, वानर, भालू — सब श्रीराम के सखा हैं। यह सामाजिक समरसता का दर्शन है। जब आज जाति-वर्ग की संकीर्णताएं फिर सिर उठा रही हैं, तुलसी का दृष्टिकोण दिशादर्शी है।


श्रीराम: आदर्श, राजनीति और प्रबंधन

  1. मर्यादा का प्रतीक:
    श्रीराम का जीवन व्यक्तिगत सुखों का नहीं, कर्तव्य का पाठ है। पिता की आज्ञा, राज्य का त्याग, पत्नी के लिए युद्ध, फिर प्रजा के न्याय हेतु सीता का त्याग — हर निर्णय में ‘स्व’ नहीं, ‘लोक’ पहले है।

  2. राजनीति में नैतिकता:
    रामराज्य केवल एक कल्पना नहीं, एक नीति है जहां राजा तपस्वी हो, और शासन प्रजा के हित में हो। आज की भ्रष्ट, सत्ता-लिप्सु राजनीति को तुलसी का राम एक आदर्श दे सकते हैं।

  3. संघर्ष में संयम:
    श्रीराम का जीवन युद्धों से भरा है, परंतु कहीं भी अधर्म का सहारा नहीं, रावण जैसे महान प्रतिद्वंदी को भी अंतिम अवसर देकर ही युद्ध किया।

तुलसी के राम बनाम आज का यथार्थ

  1. आदर्शों से कटता समाज:
    आज का समाज जहाँ तात्कालिक लाभ, स्वार्थ और क्षणिक सुखों की दौड़ में लगा है, वहाँ श्रीराम की त्याग, संयम और मर्यादा की गाथा अनुकरणीय है।

  2. नव-पीढ़ी का मार्गदर्शन:
    स्मार्टफोन की पीढ़ी जहाँ भ्रमित है, उसे तुलसी की चौपाइयाँ आचरण और विवेक की पाठशाला दे सकती हैं। उदाहरण:
    “बड़े भाग मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सदग्रंथन गावा।”

  3. संस्कृति और राष्ट्रचिंतन:
    भारत की संस्कृति श्रीराम से अलग नहीं। राम धर्म नहीं, संस्कृति हैं। और तुलसी उसका महाकाव्य।

तुलसीदास और श्रीराम केवल अतीत की पूज्य मूर्तियाँ नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य के लिए दिशा देने वाले सांस्कृतिक पथप्रदर्शक हैं। यदि हम तुलसी को केवल मंदिर की चौखट तक सीमित रखें, तो हम उनके विचारों के साथ अन्याय करते हैं।
और यदि श्रीराम को केवल चुनावी नारों तक सीमित रखें, तो हम भारतीयता के मूल स्तंभ को दुर्बल करते हैं।

इसलिए ज़रूरत है कि तुलसी को पढ़ा जाए, समझा जाए, और राम को जिया जाए।

जय श्रीराम।
जय तुलसीकृत रामायण।


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