स्त्री का सौदा: समाज, संवैधानिक चेतना और मानवता पर कलंक

 


स्त्री का सौदा: समाज, संवैधानिक चेतना और मानवता पर कलंक

राजेन्द्र नाथ तिवारी

जौनपुर जिले में घटित एक अमानवीय और ह्रदयविदारक घटना ने न केवल कानून और समाज की संवेदनशीलता पर प्रश्नचिह्न खड़ा किया है, बल्कि यह हमारे जातिगत, पितृसत्तात्मक और नैतिक रूप से खोखले होते जा रहे तानेबाने की भयावह तस्वीर भी पेश करता है। एक पति द्वारा अपनी पत्नी को ₹2.20 लाख में बेच देना—यह महज अपराध नहीं, यह एक सभ्य समाज की आत्मा का अपमान है।

34 वर्षीय शोभावती का दर्द किसी एक महिला की पीड़ा नहीं, बल्कि उन लाखों-करोड़ों वंचित और दलित वर्ग की महिलाओं की चीख़ है, जिनकी ज़िंदगियाँ एक अदृश्य मंडी में सौदेबाज़ी की वस्तु बन चुकी हैं। पति राजेश ने न केवल विवाह जैसे पवित्र सामाजिक अनुबंध को रौंदा, बल्कि एक माँ, एक पत्नी और एक मनुष्य के अस्तित्व को भी नष्ट करने का दुस्साहस किया। यह घटना कानून और नैतिकता की संयुक्त विफलता है।

पितृसत्ता और जाति का गठबंधन

यह घटना उस सामाजिक मानसिकता को उजागर करती है जहाँ अनुसूचित जाति की महिलाएं सबसे असुरक्षित मानी जाती हैं। यहाँ केवल लिंग नहीं, जाति भी अत्याचार का कारण बनती है। शोभावती न केवल एक महिला थी, वह दलित भी थी — इसलिए उसके लिए इंसाफ़ की राह और भी अधिक कठिन थी। न पुलिस ने सुना, न समाज ने साथ दिया। यह 'डबल वंचना' हमारे लोकतंत्र के उस वादे को मुँह चिढ़ाती है जो समानता और गरिमा की गारंटी देता है।

प्रशासन की असंवेदनशीलता

पीड़िता का भाई थाने गया, लेकिन उसे कोई सुनवाई नहीं मिली। यह स्थिति कानून व्यवस्था के उस निकृष्टतम स्तर को दिखाती है, जहाँ पीड़ित को पहले भागना पड़ता है, फिर गिड़गिड़ाना, और अंत में न्यायालय की शरण लेनी पड़ती है। यदि न्यायिक मजिस्ट्रेट शिल्पी की अदालत ने संज्ञान न लिया होता, तो यह मामला भी सैकड़ों अनसुनी चीखों की तरह दबा दिया जाता।

कानून की सीमा और समाज की भूमिका

ऐसी घटनाएं हमें यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि केवल कानून बना देने से न्याय सुनिश्चित नहीं होता। समाज में जब तक महिलाओं को समान, स्वतंत्र और सुरक्षित नहीं माना जाएगा, तब तक ऐसे घिनौने अपराध होते रहेंगे। यह घटना यह भी बताती है कि विवाह संस्था का उपयोग कुछ लोग अपनी पत्नियों को 'जायदाद' की तरह बेचने तक कर रहे हैं, और समाज मूकदर्शक बना रहता है।

अब क्या?

  1. इस प्रकरण में दोषियों को सख्त से सख्त सजा मिलनी चाहिए।
  2. पीड़िता और उसके बच्चों को तत्काल सुरक्षा और पुनर्वास मिलना चाहिए।
  3. दलित और वंचित वर्ग की महिलाओं के लिए विशेष विधिक सहायता प्रकोष्ठ गठित किए जाने चाहिए।
  4. पुलिस थानों में महिला पीड़ितों के लिए जवाबदेही तय की जाए।
  5. समाज में महिलाओं के अधिकारों को लेकर गंभीर जनजागरण अभियान चलाया जाए।

अंत में...

शोभावती की कहानी किसी एक महिला की त्रासदी नहीं, बल्कि हमारे समाज की विवेकहीनता, पुलिस की अकर्मण्यता और पुरुष प्रधान सोच का जीवंत दस्तावेज़ है। अब समय आ गया है कि हम “महिला सशक्तिकरण” को केवल भाषणों और नारों तक सीमित न रखें, बल्कि इसे न्याय, समानता और मानव गरिमा के साथ धरातल पर उतारें।

यह लेख एक चेतावनी है: यदि अब भी हम नहीं जागे, तो अगली बार बिकने वाली कोई और शोभावती नहीं, बल्कि मानवता स्वयं होगी।

Post a Comment

Previous Post Next Post

Contact Form