संविधान बचाओ या राहुल बचाओ? एक नजरिया?
भारत की राजनीति में रैलियों का इतिहास बड़ा रंगीन रहा है। कभी ये रैलियां स्वतंत्रता की पुकार थीं, कभी विकास का शंखनाद, और अब?अब ये "संविधान बचाओ" का नारा लेकर सड़कों पर उतर रही हैं। लेकिन हाल ही में ओडिशा के भुवनेश्वर में कांग्रेस की "संविधान बचाओ रैली" को देखकर एक सवाल मन में कौंधता है—क्या ये वाकई संविधान को बचाने की जद्दोजहद है, या फिर राहुल गांधी और उनकी पार्टी के लिए एक "खोया जनाधार तलाशो" अभियान? आइए, इस पर थोड़ा व्यंग्य का रंग चढ़ाकर बात करते हैं।
संविधान की आड़ में "शहजादे" का पर्यटन
केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने इसे "राजनीतिक पर्यटन" करार दिया, और सच कहें तो उनकी बात में दम है। भुवनेश्वर के बारामुंडा मैदान में राहुल गांधी और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे की अगुवाई में जो रैली हुई, उसमें संविधान का जिक्र तो था, लेकिन मंच से गूंजने वाली बातें कहीं न कहीं "कांग्रेस बचाओ" की पुकार ज्यादा लग रही थीं। राहुल जी ने बीजेपी पर संविधान को कमजोर करने और लोकतंत्र को खतरे में डालने का इल्जाम लगाया। लेकिन सवाल यह है कि अगर संविधान इतना ही खतरे में है, तो कांग्रेस ने अपने लंबे शासनकाल में इसे "बचाने" के लिए क्या किया? आपातकाल की यादें तो अभी धुंधली नहीं हुई हैं, जब संविधान की "धज्जियां" उड़ाने का रिकॉर्ड कांग्रेस के नाम ही दर्ज है।
रैली में राहुल गांधी ने बिहार और महाराष्ट्र के चुनावों में कथित धांधली का जिक्र किया और चुनाव आयोग को बीजेपी की "शाखा" तक कह डाला। सुनने में तो यह जोशीला भाषण लगा, लेकिन अगर हर हार के बाद चुनाव आयोग पर ठीकरा फोड़ना शुरू कर दिया जाए, तो फिर जीत का श्रेय भी तो उसी आयोग को देना चाहिए, है न? लेकिन नहीं, जीत तो "जनता की जीत" होती है, और हार "लोकतंत्र की हार"। वाह, क्या तर्क है?
हड़ताल की साजिश या रैली की नौटंकी?
रैली के दिन ओडिशा में ड्राइवरों की हड़ताल ने भी खूब सुर्खियां बटोरीं। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भक्त चरण दास ने इसे बीजेपी की "साजिश" बताया, ताकि लोग रैली में न पहुंच सकें। अब यहाँ मजेदार बात यह है कि अगर बीजेपी इतनी ताकतवर है कि हड़ताल करवाकर रैली रोक सकती है, तो फिर कांग्रेस की रैली का असर इतना कमजोर क्यों है कि एक हड़ताल उसे फीका कर दे? और अगर हड़ताल वाकई साजिश थी, तो ड्राइवर एसोसिएशन ने रैली के लिए अपनी हड़ताल में ढील क्यों दी? शायद ड्राइवर भाइयों को भी लगा कि संविधान बचाने का इतना पवित्र काम तो थोड़ा समर्थन तो बनता है?
संविधान की किताब, लेकिन पन्ने खाली!
अब थोड़ा पीछे चलते हैं। पिछले साल नागपुर में एक रैली में कांग्रेस ने "सविधान की प्रतियां" बांटी थीं, जिनके कवर पर तो "भारत का संविधान" लिखा था, लेकिन अंदर? अंदर सादे पन्ने! यह तो वैसा ही है जैसे कोई आपको चमचमाती मिठाई का डिब्बा दे, और खोलने पर उसमें सिर्फ हवा निकले। शायद यही कांग्रेस का "संविधान प्रेम" है—बाहर से चमक, अंदर से खोखलापन।
"शहजादे" को बचाने की जुगत
बीजेपी के नेताओं ने इस रैली को "राहुल बचाओ" और "कांग्रेस बचाओ" का नाम दिया, और इसमें कोई हैरानी नहीं। ओडिशा में कांग्रेस का जनाधार तो पहले ही हाशिए पर है। बीजेपी का दावा है कि यह रैली संविधान की आड़ में अपनी खोई साख को पुनर्जनन का प्रयास है। और सच कहें तो, राहुल गांधी की "संविधान बचाओ यात्रा" का शोर जितना मंचों पर है, उतना जमीन पर नहीं दिखता। रैली में हजारों समर्थक तो जुटे, लेकिन क्या ये समर्थक संविधान के लिए आए थे, या राहुल गांधी के जोशीले भाषण की उम्मीद में?
राहुल जी का भाषण भी कम मजेदार नहीं था। उन्होंने कहा कि बीजेपी और ओडिशा की सरकार गरीबों का धन "चुरा" रही है। लेकिन अगर इतिहास देखें, तो कांग्रेस के शासन में "बिचौलियों" द्वारा धन लूटने की कहानियां भी कम नहीं हैं। शायद राहुल जी को यह याद दिलाना जरूरी है कि जनता की स्मृति इतनी कमजोर नहीं है।
संविधान बचाओ या राजनीतिक स्टंट?
कांग्रेस की यह रैली कोई नई बात नहीं है। जोधपुर, रायपुर, नेवादा, और अब भुवनेश्वर—हर जगह "संविधान बचाओ" का नारा गूंज रहा है। लेकिन हर बार यह सवाल उठता है कि अगर संविधान वाकई खतरे में है, तो क्या सिर्फ रैलियां ही इसका समाधान हैं? क्या संविधान को बचाने के लिए ठोस नीतियां, कानूनी लड़ाई, या संसद में मजबूत विपक्ष की जरूरत नहीं? या फिर यह सब बस एक "नौटंकी" है, जैसा कि बीजेपी के बिरंची नारायण त्रिपाठी ने कहा?
निष्कर्ष: संविधान बचेगा, लेकिन कैसे?
संविधान भारत की आत्मा है, इसमें कोई दो राय नहीं। लेकिन इसे बचाने का दावा करने वाले अगर अपनी साख बचाने में ज्यादा व्यस्त हों, तो बात बनती नहीं। राहुल गांधी और कांग्रेस की यह रैली भले ही जोश और जुनून से भरी हो, लेकिन जब तक जमीन पर असर नहीं दिखता, यह "राजनीतिक पर्यटन" से ज्यादा कुछ नहीं लगता। अगर संविधान को बचाना है, तो शायद कांग्रेस को पहले अपनी विश्वसनीयता बचानी होगी। और हां, अगली बार संविधान की प्रतियां बांटें, तो पन्ने खाली न रहें—कम से कम कुछ प्रेरणादायक नारे ही लिख दिए जाएं?