।" > "अगर शिक्षा मंदिर है, तो बच्चा देवता है — और देवता भूखा, नंगा, उपेक्षित हो, तो पाप किसका है.

 उत्तर प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा की समस्याएँ: एक गंभीर साहित्यिक विश्लेषण,राजेन्द्र नाथ तिवारी



उत्तर प्रदेश — जनसंख्या की दृष्टि से देश का सबसे बड़ा राज्य — भारत की शैक्षिक संरचना का मेरुदंड माना जाता है। परन्तु, विडंबना यह है कि आज भी यहाँ की प्राथमिक शिक्षा प्रणाली गहरे संकट में डूबी हुई है। शिक्षा का मंदिर जिन नन्हें फूलों से महकना चाहिए, वहाँ आज शोषण, उपेक्षा, अव्यवस्था और अनिश्चितता की धूप में वे मुरझा रहे हैं।

1. अधूरी इमारतें, अधूरी आशाएँ:

उत्तर प्रदेश के कई प्राथमिक विद्यालयों की इमारतें खंडहर जैसी स्थिति में हैं। कहीं छत टपक रही है, तो कहीं कक्षा ही नहीं। जिन स्कूलों में पढ़ना चाहिए, वहाँ बच्चे "बैठने" तक की जगह नहीं पाते।

 "ईंटों से नहीं, भावनाओं से बनते हैं विद्यालय,

पर यहाँ तो ईंटें भी गिर चुकी हैं, और भावनाएँ भी।"

2. शिक्षकों की कमी और अनुपस्थिति:

एक शिक्षक पर कभी-कभी पाँच कक्षाएँ थोप दी जाती हैं। जहाँ शिक्षक हैं, वहाँ भी उनकी अनुपस्थिति, राजनीति, या फिर गैर-शैक्षणिक कार्यों में उनकी ड्यूटी से पढ़ाई बाधित होती है।

> "शिक्षक जो भविष्य का निर्माता था,

अब पंचायत चुनाव का एजेंट बन चुका है।"

3. मध्यान्ह भोजन: भोजन या दिखावा?

सरकार की मंशा भले ही अच्छी रही हो, लेकिन मिड डे मील योजना भ्रष्टाचार और खानापूर्ति की भेंट चढ़ चुकी है। बच्चों को पोषण देने के नाम पर उन्हें कभी अधपका भोजन, तो कभी सिर्फ रोटी-नमक परोस दिया जाता है।

> "पढ़ाई के बहाने बुलाए गए थे,

पेट भरने के बहाने लौट आए।"

4. नामांकन है, उपस्थिति नहीं:


सरकारी कागज़ों में छात्र संख्याएँ बड़ी हैं, पर कक्षा में बच्चे नहीं दिखते। कारण? या तो शिक्षा आकर्षक नहीं रही, या फिर उन्हें मजदूरी, घर के काम और देखरेख में लगा दिया गया।

> "बाल मजदूरों की आँखों में सपनों की जगह धूल है,

और सरकार के आँकड़ों में सब कुछ 'मूल' है।"

5. डिजिटल डिवाइड और नई शिक्षा नीति की अनदेखी:

जबकि राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP 2020) में प्रौद्योगिकी आधारित शिक्षा को प्राथमिकता दी गई है, वहीं उत्तर प्रदेश के प्राथमिक विद्यालय बिजली, इंटरनेट, स्मार्ट डिवाइसों तक से वंचित हैं। यह "डिजिटल इंडिया" के नक्शे से बाहर हैं।

6. भाषा और पाठ्यक्रम की जटिलता:

ग्रामीण पृष्ठभूमि के बच्चों के लिए शहरी-केन्द्रित पाठ्यक्रम बोझ बन जाता है। बाल मनोविज्ञान, मातृभाषा और स्थानीय संस्कृति की अनदेखी से वे न तो विषय समझ पाते हैं, न ही जुड़ाव महसूस करते हैं।

7. अभिभावकों की उदासीनता और गरीबी:


जब पेट भरने की चिंता ही शिक्षा पर भारी हो, तब पुस्तकों की कीमत दाल-चावल से अधिक लगने लगती है। ऐसे में गरीबी और अज्ञानता एक दुष्चक्र रचती है, जिसमें शिक्षा की ज्योति धूमिल पड़ जाती है।

निष्कर्ष:


उत्तर प्रदेश की प्राथमिक शिक्षा प्रणाली, जिसे देश के भविष्य की नींव बनना था, वह आज खुद आधारहीन होकर लड़खड़ा रही है। आवश्यकता है — राजनीतिक इच्छाशक्ति, शिक्षकों की जवाबदेही, अभिभावकों की सहभागिता और बच्चों के अधिकारों की रक्षा की।


> "अगर शिक्षा मंदिर है, तो बच्चा देवता है —

और देवता भूखा, नंगा, उपेक्षित हो, तो पाप किसका है.

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