आजादी के सात दशक बाद भी भारत की राजनीति में भाषा को एक संकीर्ण और अवसरवादी हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है, जो देश की संघीय अवधारणा और राष्ट्रीय एकता के लिए गंभीर खतरा बन गया है। महाराष्ट्र में हाल के घटनाक्रम, जहां हिंदी विरोध को राजनीतिक लाभ के लिए प्रचारित किया जा रहा है, इस दुराग्रह का जीवंत उदाहरण हैं। यह विडंबना ही है कि जिस राज्य से संघ जैसी संस्था देश को एकता के सूत्र में बांधने की मुहिम चला रही है, उसी राज्य में राष्ट्र की संपर्क भाषा हिंदी के खिलाफ भाषायी कट्टरपंथ को हवा दी जा रही है।
महाराष्ट्र में राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे जैसे नेता, जो बीस साल बाद मराठी अस्मिता के नाम पर एक मंच पर एकजुट हुए, इस बात के प्रमाण हैं कि भाषा विरोध को सत्ता की कुर्सी तक पहुँचने का साधन बनाया जा रहा है। इसे 'भरत मिलाप' कहकर प्रचारित किया जा रहा है, लेकिन यह राष्ट्रीय एकता और सद्भाव के लिए कुत्सित प्रयास है। मुंबई, जो भारत की आर्थिक राजधानी के रूप में जानी जाती है, की समृद्धि में उत्तर भारत के लोगों और हिंदी फिल्म उद्योग का योगदान अनदेखा नहीं किया जा सकता। फिर भी, हिंदी बोलने वालों के साथ मारपीट जैसे मामले सामने आना, यह दर्शाता है कि यह संघर्ष केवल भाषा का नहीं, बल्कि सत्ता और वर्चस्व की राजनीति का हिस्सा है।
इस सोच का मूल उद्देश्य भाजपा के राजनीतिक वर्चस्व को तोड़ना और मुंबई नगर निगम व राज्य की सत्ता पर कब्जा करना हो सकता है, लेकिन इसका परिणाम राष्ट्रीय एकता पर प्रहार के रूप में सामने आ रहा है। इतिहास गवाह है कि तमिलनाडु में हिंदी विरोध के सुर कभी मुखर हुए थे, और अब वे महाराष्ट्र में भी तेजी से बढ़ रहे हैं। यदि इस तरह की संकीर्ण राजनीति को सफलता मिलती है, तो देश के अन्य राज्यों में भी भाषायी विरोध की आग भड़क सकती है, जो राष्ट्रीय एकता के लिए एक बड़ी चुनौती होगी।
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आजादी के बाद भी जनता को विकास और तार्किक मुद्दों की बजाय अस्मिता और भाषा जैसे संवेदनशील विषयों में उलझाया जा रहा है। महाराष्ट्र में शिवसेना का उदय भी इसी तरह के मुद्दों पर हुआ था, और आज भी कुछ दल अपनी हाशिए पर जाने की भरपाई के लिए ऐसे भावनात्मक मुद्दों को हवा दे रहे हैं। जबकि पूरी दुनिया विज्ञान, तकनीक, और अभिव्यक्ति की क्रांति से एकजुट हो रही है, हम भाषायी संकीर्णताओं में उलझकर प्रगति के पहिए को थामने की कोशिश कर रहे हैं।
हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में स्वीकार करना भारत की विविधता में एकता का प्रतीक है। स्वतंत्रता आंदोलनकारियों ने इसे देश की एकता की भाषा के रूप में अपनाया था, जिसमें तमाम भारतीय भाषाओं के शब्द समाहित हैं। अंग्रेजी जैसे विदेशी भाषा को त्रिभाषा फॉर्मूले में सहर्ष अपनाने में कोई हिचक नहीं, लेकिन हिंदी का विरोध करना विरोधाभास ही है। यह न केवल भाषा के प्रति दुराग्रह है, बल्कि भारतीय संस्कृति और एकता के प्रति अनादर भी है।
भारतीय लोकतंत्र की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि राजनीतिक दल सकारात्मक मुद्दों जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, और बुनियादी ढांचे को प्राथमिकता दें, न कि संकीर्ण अस्मिता को हवा देकर वोट बैंक की राजनीति करें। राष्ट्रीय एकता और भाषायी सद्भाव को मजबूत करने के लिए जरूरी है कि हम अपनी मातृभाषा का सम्मान करें, लेकिन हिंदी जैसे संपर्क भाषा की उपयोगिता को भी स्वीकार करें। अन्यथा, यह दुराग्रह हमें प्रगति के मार्ग से भटका सकता है और देश को विखंडन की ओर ले जा सकता है।
लेखक:राजेन्द्र नाथ तिवारी
दिनांक:13 जुलाई,25