शिक्षक की पात्रता दो साल की कैद में , अन्याय पूर्ण फैसला,सरकार पुनर्विचार याचिका दायर करे

 


शिक्षक पात्रता परीक्षा (टीईटी) की अनिवार्यता: न्याय या अन्याय?

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में आदेश दिया है कि प्राथमिक और जूनियर कक्षाओं के शिक्षकों के लिए शिक्षक पात्रता परीक्षा (टीईटी) उत्तीर्ण करना दो वर्षों के भीतर अनिवार्य होगा। अन्यथा, उनकी नौकरी पर संकट आ सकता है। पहली नज़र में यह आदेश शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने की दिशा में न्यायोचित प्रतीत होता है, किंतु वास्तविकता इससे कहीं अधिक गहरी और विस्फोटक है।

न्यायिक आदेश और जमीनी हकीकत का टकराव

कानून और न्यायिक आदेश तभी कारगर होते हैं जब वे समाज की परिस्थितियों के अनुरूप हों। शिक्षा विभाग में हजारों शिक्षक वर्षों से अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। कई शिक्षकों ने दो दशक पहले नियुक्ति पाई, जब टीईटी जैसी कोई व्यवस्था अस्तित्व में नहीं थी। उन्होंने अपनी सेवा का सर्वश्रेष्ठ समय शिक्षा प्रणाली को दिया और बच्चों को अक्षर ज्ञान से लेकर जीवन मूल्यों तक सिखाया। आज उन्हीं शिक्षकों से यह कहना कि “दो साल में टीईटी पास करो, अन्यथा नौकरी चली जाएगी” न केवल असंवेदनशील है बल्कि न्याय के मूल सिद्धांतों के विपरीत भी है।

न्यायालय की मंशा शिक्षा व्यवस्था को सुधारना है, परंतु क्या इस फैसले ने वरिष्ठ शिक्षकों के आत्मसम्मान, अनुभव और अधिकारों पर आघात नहीं किया?

शिक्षा सुधार या प्रशासनिक प्रहार?

शिक्षा सुधार का उद्देश्य बेहतर शिक्षण वातावरण, संसाधन और प्रशिक्षण उपलब्ध कराना होना चाहिए। लेकिन इस फैसले ने शिक्षकों पर तलवार लटका दी है।

  • क्या शिक्षा की गुणवत्ता केवल एक परीक्षा पास करने से सुधर जाएगी?
  • क्या वर्षों से पढ़ा रहे अनुभवी शिक्षक अचानक “अयोग्य” हो जाएंगे?
  • क्या यह आदेश इस सच्चाई को नकार नहीं रहा कि व्यावहारिक ज्ञान और कक्षा अनुभव किसी भी लिखित परीक्षा से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है?

दरअसल, यह निर्णय शिक्षा सुधार कम और प्रशासनिक प्रहार अधिक प्रतीत होता है।

शिक्षक संघों का आक्रोश और वास्तविकता

शिक्षक संघों ने इस आदेश को अव्यावहारिक बताया है। यह अव्यावहारिकता केवल भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं है, बल्कि ठोस तर्कों पर आधारित है।

  1. आयु सीमा और प्रतिस्पर्धा का बोझ – पचास साल की उम्र में एक शिक्षक से वही मानसिक एकाग्रता और प्रतिस्पर्धी तैयारी की उम्मीद करना, जो 25 वर्षीय अभ्यर्थी से की जाती है, क्या न्याय है?
  2. प्रशासनिक लापरवाही – बीएसए कार्यालय और शासन अभी आदेश की प्रतिलिपि तक का इंतजार कर रहे हैं। जब प्रशासन ही ढीला है, तो शिक्षक से कठोर अपेक्षा क्यों?
  3. अनुभव बनाम परीक्षा – दशकों का अनुभव किसी भी परीक्षा से कहीं ऊपर होता है। यदि यही मानदंड है तो न्यायपालिका, प्रशासन और राजनीति में भी सभी को हर दो साल में योग्यता परीक्षा देनी चाहिए।

न्यायिक दायरे की चोट

न्याय का अर्थ केवल किताबों में लिखे प्रावधानों को लागू करना नहीं है, बल्कि परिस्थितियों, समाज और व्यक्ति के अधिकारों का सम्मान करना भी है। सुप्रीम कोर्ट का आदेश कानूनी दृष्टि से सही हो सकता है, परंतु यह शिक्षा तंत्र और शिक्षकों की गरिमा पर सीधी चोट है।

  • यह आदेश समान अवसर की बजाय असमान दायित्व पैदा कर रहा है।
  • यह शिक्षकों को अपराधियों की तरह कठघरे में खड़ा कर रहा है, मानो वे अब तक बिना योग्यता बच्चों को पढ़ाते रहे।
  • यह संविधान के जीविका के अधिकार (Right to Livelihood) पर भी प्रश्न खड़ा करता है।

समाधान और रास्ता

यदि सरकार और न्यायपालिका वास्तव में शिक्षा की गुणवत्ता सुधारना चाहते हैं तो समाधान तलवार लटकाना नहीं, बल्कि सहयोग और संवेदनशीलता है।

  1. सभी शिक्षकों को प्रशिक्षण – अनिवार्य टीईटी की जगह रिफ्रेशर ट्रेनिंग और मूल्यांकन कार्यक्रम लागू हों।
  2. अनुभव को मान्यता – लंबे समय से पढ़ा रहे शिक्षकों को विशेष श्रेणी या ग्रेस पॉइंट देकर परीक्षा में छूट या सहज विकल्प दिया जाए।
  3. प्रशासनिक जिम्मेदारी – शासन-प्रशासन स्वयं शिक्षण-सामग्री, तकनीकी संसाधन और कक्षा का बेहतर वातावरण सुनिश्चित करे.

शिक्षा सुधार आवश्यक है, परंतु सुधार का रास्ता न्यायसंगत होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट का आदेश यदि बिना संशोधन लागू हुआ तो हजारों शिक्षक मानसिक, सामाजिक और आर्थिक संकट में आ जाएंगे। यह न केवल शिक्षा व्यवस्था को अस्थिर करेगा, बल्कि न्यायपालिका की संवेदनशीलता पर भी प्रश्न उठाएगा।

टीईटी अनिवार्यता का फैसला शिक्षा में सुधार से अधिक शिक्षकों पर आक्रामक चोट है। यह आदेश तभी सार्थक होगा जब इसमें न्याय, संवेदना और व्यावहारिकता का संतुलन जोड़ा जाए। अन्यथा, यह शिक्षा प्रणाली को सुधारने की बजाय और अधिक खोखला कर देगा।


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