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"सहकार से ही समृद्धि" का नारा वेद काल से लेकर आधुनिक युग तक भारतीय संस्कृतिऔर
समाज की मूल भावना को दर्शाता है। यह सहयोग, सामूहिकता और एकजुटता के महत्व को रेखांकित करता है, जो समृद्धि और प्रगति का आधार रहा है। इस विचार का विश्लेषण निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से किया जा सकता है:
1. वेदकाल में सहकार का महत्व
वेदकालीन समाज में सहकारिता सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था का मूल थी। ऋग्वेद और अथर्ववेद में सामूहिक कार्य, यज्ञ और समुदाय के लिए एकजुटता के उल्लेख मिलते हैं। यज्ञ केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि सामाजिक सहयोग का प्रतीक था, जिसमें सभी वर्गों—ऋषियों, किसानों, कारीगरों—का योगदान होता था। उदाहरण के लिए:
ऋग्वेद (1.8.1) में इंद्र और अन्य देवताओं की प्रशंसा में सामूहिक प्रयासों का उल्लेख है, जो समाज की एकता को दर्शाता है।
ग्राम्य जीवन में खेती, पशुपालन और व्यापार सामूहिक सहयोग पर आधारित थे।
2. ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
मौर्य और गुप्त काल: सहकारी समितियाँ (श्रेणियाँ) व्यापार और शिल्प में महत्वपूर्ण थीं। ये समितियाँ कारीगरों और व्यापारियों को एकजुट करती थीं, जिससे आर्थिक समृद्धि बढ़ी।
मध्यकालीन भारत: भक्ति और सूफी आंदोलनों ने सामाजिक सहकारिता को बढ़ावा दिया, जहाँ विभिन्न जातियों और समुदायों के लोग एक साथ आए।
गाँधीवादी दर्शन: महात्मा गाँधी ने ग्राम स्वराज और सहकारी आंदोलन को बढ़ावा देकर "सहकार से समृद्धि" के विचार को पुनर्जनन दिया। उनकी प्रेरणा से सहकारी समितियों, जैसे खादी और ग्रामीण उद्योग, ने स्थानीय अर्थव्यवस्था को मजबूत किया।
3. आधुनिक युग में सहकारिता
सहकारी आंदोलन: भारत में अमूल (आनंद मिल्क यूनियन लिमिटेड) इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। वर्गीज कुरियन के नेतृत्व में दूध उत्पादकों ने सहकारिता के माध्यम से न केवल आर्थिक समृद्धि हासिल की, बल्कि भारत को दूध उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाया।
कृषि और बैंकिंग: सहकारी बैंकों और कृषि समितियों ने छोटे किसानों और ग्रामीण समुदायों को सशक्त किया। उदाहरण के लिए, NABARD (नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एंड रूरल डेवलपमेंट) सहकारी ढांचे को बढ़ावा देता है।
सामाजिक समृद्धि: सहकारिता केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक एकता को भी बढ़ाती है। यह जाति, धर्म और क्षेत्र की बाधाओं को तोड़कर समावेशी विकास को प्रोत्साहित करती है।
4. वैश्विक परिप्रेक्ष्य
सहकारिता का सिद्धांत विश्व स्तर पर भी मान्य है। संयुक्त राष्ट्र ने 2012 को "अंतरराष्ट्रीय सहकारी वर्ष" घोषित किया था, जिसमें सहकारी मॉडल को सतत विकास का आधार माना गया। विश्व में मॉन्ड्रैगन (स्पेन) जैसे सहकारी मॉडल ने साबित किया कि सामूहिक प्रयास से आर्थिक और सामाजिक समृद्धि संभव है।
5. चुनौतियाँ और भविष्य
चुनौतियाँ: सहकारी आंदोलन में भ्रष्टाचार, कुप्रबंधन और सरकारी हस्तक्षेप जैसी समस्याएँ रही हैं। इसके अलावा, आधुनिक तकनीक और वैश्वीकरण के दौर में सहकारी मॉडल को और अधिक नवाचार की आवश्यकता है।
भविष्य: डिजिटल प्लेटफॉर्म और तकनीक के उपयोग से सहकारी समितियाँ और सशक्त हो सकती हैं। उदाहरण के लिए, ई-कॉमर्स और डिजिटल बैंकिंग सहकारी मॉडल को नए आयाम दे रहे हैं।
"सहकार से ही समृद्धि" का सिद्धांत वेदकाल से आज तक भारत की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक उन्नति का आधार रहा है। यह न केवल व्यक्तिगत लाभ, बल्कि सामूहिक कल्याण पर जोर देता है। सहकारिता के इस मंत्र को अपनाकर भारत न केवल आर्थिक समृद्धि, बल्कि सामाजिक एकता और सतत विकास के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। यह विचार आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना वेदकाल में था।
वेदकालीन समाज में सहकारिता सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था का मूल थी। ऋग्वेद और अथर्ववेद में सामूहिक कार्य, यज्ञ और समुदाय के लिए एकजुटता के उल्लेख मिलते हैं। यज्ञ केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि सामाजिक सहयोग का प्रतीक था, जिसमें सभी वर्गों—ऋषियों, किसानों, कारीगरों—का योगदान होता था। उदाहरण के लिए:
ऋग्वेद (1.8.1) में इंद्र और अन्य देवताओं की प्रशंसा में सामूहिक प्रयासों का उल्लेख है, जो समाज की एकता को दर्शाता है।
ग्राम्य जीवन में खेती, पशुपालन और व्यापार सामूहिक सहयोग पर आधारित थे।
2. ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
मौर्य और गुप्त काल: सहकारी समितियाँ (श्रेणियाँ) व्यापार और शिल्प में महत्वपूर्ण थीं। ये समितियाँ कारीगरों और व्यापारियों को एकजुट करती थीं, जिससे आर्थिक समृद्धि बढ़ी।
मध्यकालीन भारत: भक्ति और सूफी आंदोलनों ने सामाजिक सहकारिता को बढ़ावा दिया, जहाँ विभिन्न जातियों और समुदायों के लोग एक साथ आए।
गाँधीवादी दर्शन: महात्मा गाँधी ने ग्राम स्वराज और सहकारी आंदोलन को बढ़ावा देकर "सहकार से समृद्धि" के विचार को पुनर्जनन दिया। उनकी प्रेरणा से सहकारी समितियों, जैसे खादी और ग्रामीण उद्योग, ने स्थानीय अर्थव्यवस्था को मजबूत किया।
3. आधुनिक युग में सहकारिता
सहकारी आंदोलन: भारत में अमूल (आनंद मिल्क यूनियन लिमिटेड) इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। वर्गीज कुरियन के नेतृत्व में दूध उत्पादकों ने सहकारिता के माध्यम से न केवल आर्थिक समृद्धि हासिल की, बल्कि भारत को दूध उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाया।
कृषि और बैंकिंग: सहकारी बैंकों और कृषि समितियों ने छोटे किसानों और ग्रामीण समुदायों को सशक्त किया। उदाहरण के लिए, NABARD (नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एंड रूरल डेवलपमेंट) सहकारी ढांचे को बढ़ावा देता है।
सामाजिक समृद्धि: सहकारिता केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक एकता को भी बढ़ाती है। यह जाति, धर्म और क्षेत्र की बाधाओं को तोड़कर समावेशी विकास को प्रोत्साहित करती है।
4. वैश्विक परिप्रेक्ष्य
सहकारिता का सिद्धांत विश्व स्तर पर भी मान्य है। संयुक्त राष्ट्र ने 2012 को "अंतरराष्ट्रीय सहकारी वर्ष" घोषित किया था, जिसमें सहकारी मॉडल को सतत विकास का आधार माना गया। विश्व में मॉन्ड्रैगन (स्पेन) जैसे सहकारी मॉडल ने साबित किया कि सामूहिक प्रयास से आर्थिक और सामाजिक समृद्धि संभव है।
5. चुनौतियाँ और भविष्य
चुनौतियाँ: सहकारी आंदोलन में भ्रष्टाचार, कुप्रबंधन और सरकारी हस्तक्षेप जैसी समस्याएँ रही हैं। इसके अलावा, आधुनिक तकनीक और वैश्वीकरण के दौर में सहकारी मॉडल को और अधिक नवाचार की आवश्यकता है।
भविष्य: डिजिटल प्लेटफॉर्म और तकनीक के उपयोग से सहकारी समितियाँ और सशक्त हो सकती हैं। उदाहरण के लिए, ई-कॉमर्स और डिजिटल बैंकिंग सहकारी मॉडल को नए आयाम दे रहे हैं।
"सहकार से ही समृद्धि" का सिद्धांत वेदकाल से आज तक भारत की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक उन्नति का आधार रहा है। यह न केवल व्यक्तिगत लाभ, बल्कि सामूहिक कल्याण पर जोर देता है। सहकारिता के इस मंत्र को अपनाकर भारत न केवल आर्थिक समृद्धि, बल्कि सामाजिक एकता और सतत विकास के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। यह विचार आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना वेदकाल में था।
भारत की एम पैक्स को आत्म निभर बनाना ही मोदीवजीवके विज्ञव2047 की गारंटी है.सहकारी समितियां आत्म निर्भर !! आत्म निर्भर देश!! सदस्यता,व्यवसाय और ऋण वितरण उत्तर प्रदेश की सहकारिता को वैश्विक स्तर पर ले जायेगा.आप संकल्प करे,आपकी सिद्धि के लिए सरकार पहल करेगी.