रामभद्राचार्य काअंबेडकर पर प्रहार: हिंदुत्व की पीठ में घोंपा गया खंजर!


रामभद्राचार्य, हिंदुत्व, संस्कृत और डॉ. अंबेडकर: एक  विश्लेषण

राजेंद्र नाथ तिवारी

भारतीय समाज का बौद्धिक परिदृश्य आज भी दो विरोधाभासी ध्रुवों के बीच झूलता है—एक ओर परंपरा, धर्म और संस्कृति के नाम पर स्थापित प्रभुत्ववादी विमर्श, और दूसरी ओर सामाजिक न्याय, समता और विद्रोह का स्वर। इन दो ध्रुवों का प्रतिनिधित्व अलग-अलग विचारकों और प्रतीकों में दिखाई देता है। जहाँ रामभद्राचार्य और हिंदुत्व की विचारधारा संस्कृत और वेद पर आधारित ब्राह्मणवादी पुनरुत्थानवाद का प्रतीक है, वहीं डॉ. अंबेडकर आधुनिक भारत में उस संरचना पर सबसे तीखा हमला करने वाले विद्रोही चिंतक हैं। लेकिन इन दोनों ध्रुवों के भीतर भी गहरी कमजोरियाँ और अंतर्विरोध हैं, जिन्हें उजागर करना आवश्यक है।

रामभद्राचार्य और संस्कृत का मायाजाल

रामभद्राचार्य का पूरा विमर्श संस्कृत और रामकथा के इर्द-गिर्द घूमता है। वे परंपरा और धार्मिक प्रतीकों को जीवित रखने का काम करते हैं। लेकिन उनकी बौद्धिकता एक सीमित घेरे में कैद है—जहाँ प्रश्न उठाना अपराध है, और परंपरा की आलोचना करना अधर्म। संस्कृत का जो महिमामंडन वे करते हैं, वह वस्तुतः एक मृत भाषा का कृत्रिम पुनर्जीवन है। जनभाषाओं की ताकत को नकारकर संस्कृत को सर्वोच्च बताना केवल उस सामाजिक ढांचे को बनाए रखने की चेष्टा है, जिसमें ज्ञान और संस्कृति पर मुट्ठीभर वर्ग का कब्ज़ा बना रहे।

हिंदुत्व का छलावा

हिंदुत्व स्वयं को राष्ट्रीय पहचान और सांस्कृतिक गौरव का प्रतीक बताता है, लेकिन असल में यह सत्ता और वर्चस्व की राजनीति का औजार है। इसमें समता और स्वतंत्रता के लिए कोई जगह नहीं, केवल एकरूपता और आस्था का दबाव है। हिंदुत्व जाति और वर्ण की जड़ों से कभी अलग नहीं हो पाया। इसकी ताकत सामूहिक स्मृतियों और धार्मिक प्रतीकों से आती है, लेकिन इसकी कमजोरी यह है कि यह विविधता और असहमति से डरता है।

डॉ. अंबेडकर की सीमाएँ

डॉ. अंबेडकर ने भारतीय समाज की सबसे गहरी बीमारी—जातिवाद—पर हमला बोला। उनका योगदान यह है कि उन्होंने ब्राह्मणवादी ढांचे की पोल खोल दी। लेकिन उनकी राजनीति भी अंतर्विरोधों से मुक्त नहीं थी। बौद्ध धर्म को अपनाकर उन्होंने जिस नई राह का संकेत दिया, वह भी एक तरह का धार्मिक आश्रय था, जबकि वे स्वयं तर्क और आधुनिकता के पक्षधर थे। उनके अनुयायी उन्हें कभी-कभी अंधभक्ति के स्तर पर पूजते हैं, जिससे अंबेडकर का तर्कशील और विद्रोही स्वर खो जाता है। इसके अलावा, वे भारतीय राष्ट्रवाद के प्रश्न पर अंत तक दुविधा में रहे।

टकराव और विफलताएँ

रामभद्राचार्य और हिंदुत्व की विचारधारा जहाँ अतीत में उलझकर वर्तमान की समस्याओं को नजरअंदाज करती है, वहीं अंबेडकर का विमर्श जाति-प्रश्न पर इतना केंद्रित हो गया कि आर्थिक असमानता, वर्ग-संघर्ष और वैश्विक दृष्टिकोण अपेक्षाकृत हाशिए पर चले गए। संस्कृत और रामकथा समाज के हर तबके की आकांक्षाओं को नहीं जोड़ पाती, वहीं अंबेडकर का विमर्श भी अपनी सीमाओं में कैद रहकर एक वैकल्पिक सर्वमान्य विचारधारा नहीं बन सका।यू

आज आवश्यकता है कि न रामभद्राचार्य के परंपरावादी चश्मे से समाज को देखा जाए, न ही अंबेडकर के अनुयायियों की अंधभक्ति से। हिंदुत्व की सांस्कृतिक राजनीति और अंबेडकरवाद की संकीर्णता—दोनों से परे जाकर समता, स्वतंत्रता और वैज्ञानिकता पर आधारित नई दृष्टि विकसित करनी होगी। अन्यथा भारत या तो अतीत की जंजीरों में कैद रहेगा या फिर अंतहीन विभाजनों का शिकार।

अंबेडकर पर प्रहार: हिंदुत्व की पीठ में घोंपा गया खंजरभारत की सभ्यता का इतिहास गवाह है कि जब भी संतों और महात्माओं ने समाज को जोड़ने की कोशिश की, तब भारत सशक्त हुआ। और जब किसी ने अपने ही लोगों का अपमान किया, तब दरारें इतनी गहरी हुईं कि सदियों तक भर न सकीं। हाल ही में जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी की डॉ. भीमराव अंबेडकर पर टिप्पणी उसी खतरनाक परंपरा का ताज़ा उदाहरण है। यह केवल एक वाक्य या व्यक्तिगत राय का मामला नहीं है। यह उस हिंदुत्व की वैचारिक आत्मा पर सीधा वार है, जो दशकों से दलित समाज को अपने साथ जोड़ने के लिए संघर्ष कर रही है।



अंबेडकर – दलितों के लिए देवता, भारत के लिए संविधान,डॉ. अंबेडकर केवल दलितों के मसीहा नहीं हैं। वे लोकतांत्रिक भारत के वास्तुकार और संविधान की आत्मा हैं। उनका अपमान करना वैसा ही है जैसे गीता या वेद को अपमानित करना। जिस राष्ट्र ने अंबेडकर को “संविधान निर्माता” के रूप में पूजा, वहां यदि कोई संत सार्वजनिक मंच से उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश करे, तो यह न केवल असंवेदनशील है बल्कि राजनीतिक रूप से आत्मघाती भी।


विपक्ष की लॉटरी लग गई,मायावती और उनके जैसे नेताओं की राजनीति वर्षों से अंबेडकर के नाम पर ही टिकती आई है। लेकिन धीरे-धीरे दलित समाज हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की ओर आकर्षित हो रहा था। रामभद्राचार्य जी की जुबान फिसली, और विपक्ष की सोई हुई किस्मत जाग गई। अब मायावती गरज रही हैं:  “देखो, हिंदुत्व तुम्हारे बाबा साहब का अपमान करता है।” कांग्रेस, समाजवादी और वामपंथी भी इस विवाद पर ताली बजा रहे हैं। उन्हें मुफ्त का मुद्दा मिल गया है – दलित अस्मिता बनाम हिंदुत्व। यह वही राजनीतिक जाल है जिसमें हिंदुत्व का विस्तार रुक सकता है।

संतों का धर्म – जोड़ो, तोड़ो नहीं संत और विद्वान समाज को मार्गदर्शन देने वाले होते हैं। उनके शब्द हथियार नहीं, मरहम होने चाहिए। रामभद्राचार्य जी ने यदि अंबेडकर की आलोचना की होती तो बात अलग थी; लेकिन सार्वजनिक मंच से अपमानजनक टिप्पणी करना, सीधे-सीधे समाज को बाँटने की चिंगारी है। जो संत वेदांत और भक्ति का उपदेश दें, वही जब दलितों के मसीहा पर वार करे, तो उनकी विद्वत्ता पर नहीं, उनके विवेक पर प्रश्नचिह्न लगते हैं। हिंदुत्व का असली आधार, हिंदुत्व की शक्ति उसका समावेश है। यह आंदोलन तब मजबूत होता है जब वह सबको साथ ले चलता है – सवर्ण, दलित, पिछड़े, आदिवासी सभी को। राम और कृष्ण के साथ-साथ अंबेडकर भी इस भारत की आत्मा का हिस्सा हैं। अगर हिंदुत्व अंबेडकर का अपमान करेगा, तो यह अपने ही पाँव पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा। हिंदुत्व का भविष्य संविधान की गरिमा और अंबेडकर की प्रतिष्ठा में ही सुरक्षित है।

सोचिए, यह कितना विडंबनापूर्ण है – जो हिंदुत्व वर्षों से दलितों तक पहुँचने की कोशिश कर रहा है, वही अपने ही संतों की जुबान से उन्हें दूर भगाने में लगा है। यह वैसा ही है जैसे—युद्ध के समय सेनापति अपनी ही सेना पर बम गिरा दे। नाविक समुद्र के बीच अपनी नाव में छेद कर दे।या कोई किसान अपनी ही फसल को आग लगा दे। रामभद्राचार्य जी की टिप्पणी बिल्कुल इसी तरह का आत्मघाती क़दम है।


 हिंदुत्व की चेतावनी,हिंदुत्व की असली ताक़त किसी का अपमान करने में नहीं, बल्कि सबको सम्मान देने में है। डॉ. अंबेडकर का अपमान दलित समाज को हिंदुत्व से दूर धकेलेगा और विपक्ष को ताक़त देगा। अगर यह सिलसिला नहीं रुका, तो हिंदुत्व का समावेशी चेहरा मिट जाएगा और उसकी राजनीतिक शक्ति खोखली हो जाएगी
 “रामभद्राचार्य जी का अंबेडकर पर हमला हिंदुत्व के दुश्मनों के लिए अमृत है और अपने ही आंदोलन की आत्मा के लिए ज़हर। हिंदुत्व का भविष्य अंबेडकर के सम्मान में है, उनके अपमान में नहीं।”



 

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