संपादकीय
भागवत का संदेश : संघर्ष नहीं, समन्वय की राह – कांग्रेस को भी आईना
राजेंद्र नाथ तिवारी , kautilya ka bharat@gmail.com
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत का दिल्ली में दिया गया संबोधन केवल संघ परिवार के लिए मार्गदर्शन नहीं था, बल्कि पूरे राष्ट्र की राजनीति और समाज के लिए एक गूंजता संदेश था। उनके वक्तव्य में जहां काशी-मथुरा, स्वदेशी, हिन्दू राष्ट्र और जनसंख्या जैसे गंभीर मुद्दों पर स्पष्टता थी, वहीं अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता पक्ष और विपक्ष—दोनों के लिए नसीहतें छिपी थीं।
राम मंदिर के बाद उठ रही काशी-मथुरा की मांगों पर संघ प्रमुख का यह कहना कि संघ अब किसी आंदोलन का हिस्सा नहीं बनेगा, यह संकेत है कि संगठन टकराव नहीं, बल्कि समाधान और सद्भाव की दिशा में देखना चाहता है। कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल अक्सर आरोप लगाते रहे हैं कि संघ हर विवाद को हवा देता है। भागवत का यह कथन उन आरोपों को ध्वस्त करता है। सवाल यह है कि क्या कांग्रेस अब भी पुराने रटारटाए आरोपों को दोहराती रहेगी या बदली हुई वास्तविकता को स्वीकार करेगी?
धर्म और संस्कृति पर उनका कथन—“हिन्दू और मुसलमान अलग नहीं, केवल पूजा-पद्धति भिन्न है”—एक गहरा संदेश है। आज जब कांग्रेस वोटबैंक की राजनीति के लिए बार-बार समाज को बांटने वाली भाषा बोलती है, भागवत ने दोनों समुदायों को साझा विरासत की याद दिलाई। कांग्रेस को समझना चाहिए कि सद्भाव का रास्ता तुष्टिकरण से नहीं, बल्कि समान सांस्कृतिक पहचान को स्वीकार करने से निकलता है।
स्वदेशी पर उनका व्यंग्यपूर्ण उदाहरण—शिकंजी बनाम कोका-कोला—सिर्फ आर्थिक आत्मनिर्भरता की बात नहीं, बल्कि मानसिक गुलामी से मुक्ति का प्रतीक है। अफसोस, कांग्रेस के शासनकाल में विदेशी पूंजी और विदेशी वस्तुओं पर निर्भरता को ही विकास का नाम दिया गया। आज संघ प्रमुख का यह संदेश आमजन को याद दिलाता है कि असली ताकत आत्मनिर्भर भारत में है, न कि पश्चिमी उपभोक्तावाद की अंधी नकल में।
75 वर्ष की आयु पर रिटायरमेंट को खारिज करना और प्रधानमंत्री मोदी को अप्रत्यक्ष रूप से हरी झंडी दिखाना भी एक महत्वपूर्ण राजनीतिक संकेत है। कांग्रेस अक्सर भाजपा नेतृत्व की उम्र और उत्तराधिकार की बहस छेड़ती है, लेकिन सच्चाई यह है कि कांग्रेस स्वयं ही वंशवादी जड़ता में फंसी है, जहां उम्र नहीं, बल्कि वंश ही टिकट और पद का निर्धारण करता है।
जनसंख्या पर भागवत का विचार—कम से कम तीन संतानें—उनकी दीर्घकालिक सोच को दर्शाता है। कांग्रेस जैसी पार्टियां इसे साम्प्रदायिक रंग देकर राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश करेंगी, लेकिन तथ्य यह है कि यह चिंता राष्ट्रीय संतुलन और सांस्कृतिक निरंतरता से जुड़ी हुई है।
और अंततः हिन्दू राष्ट्र पर उनका कथन—“भारत पहले से ही हिन्दू राष्ट्र है”—कांग्रेस की उस राजनीति को सीधी चुनौती है, जो दशकों से ‘हिन्दू शब्द’ को संकुचित और विभाजनकारी बताकर ही राजनीति करती आई है। भागवत ने साफ किया कि हिन्दू का अर्थ धर्म नहीं, बल्कि साझा संस्कृति और विरासत है।
संघ-भाजपा संबंधों पर दिया गया उनका वक्तव्य भी कांग्रेस के लिए सीख है। संघ ने स्पष्ट कहा कि वह दबाव नहीं बनाता, केवल सुझाव देता है। कांग्रेस का यह आरोप कि भाजपा केवल संघ की कठपुतली है, अब खोखला पड़ता दिखता है।
निष्कर्ष यही है कि मोहन भागवत का पूरा संदेश संघर्ष से समन्वय की ओर जाने का आह्वान है।
कांग्रेस और विपक्ष चाहें तो इसे अवसर मानकर सकारात्मक राजनीति की ओर बढ़ सकते हैं, लेकिन यदि वे पुराने आरोपों और वोटबैंक की राजनीति से चिपके रहेंगे तो जनता उन्हें और ज्यादा अप्रासंगिक बना देगी।