बंदरों, कुत्तों का आतंक: सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी के बावजूद उत्तर प्रदेश में प्रशासन मौन"


 बंदरों का आतंक और प्रशासन की मौन स्वीकृति — न्यायपालिका की चेतावनी भी बेअसर

सुप्रीम कोर्ट से लेकर गली-मोहल्लों तक, बंदरों,कुत्तों के आतंक की खबरें अब किसी अख़बार के “हल्के” कॉलम का हिस्सा नहीं रहीं, बल्कि जानलेवा हकीकत बन चुकी हैं। उत्तर प्रदेश के बस्ती, गोंडा,  संतकबीरनगर, अयोध्या प्रयागराज, मथुरा, लखनऊ—किसी भी जिले का नाम लीजिए, हालात एक जैसे हैं। महिलाएं पानी भरने तक बाहर नहीं निकल पा रहीं, बच्चों को स्कूल भेजना माता-पिता के लिए डरावना काम हो गया है। बुजुर्ग तो छत पर कपड़े सुखाने से पहले भी चार बार आसमान निहारते हैं कि कहीं बंदर हमला न कर दें।

प्रशासनिक उदासीनता का कड़वा सच
नगर पालिकाएं और स्थानीय प्रशासन इस गंभीर खतरे के सामने मौन साधे बैठे हैं। मानो यह कोई “प्राकृतिक समस्या” है जिसे भगवान ने भेजा है और इंसान को बस सहना है। बजट फाइलों में “पशु पकड़ो अभियान” के नाम पर लाखों रुपये स्वीकृत होते हैं, लेकिन नतीजा? कुछ फोटो खिंचवाकर पिंजरा लगाना, फिर वही पिंजरा महीनों तक जंग खाता पड़ा रहना।

सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी — हवा में  सुप्रीम कोर्ट ने समय-समय पर राज्य सरकारों को आदेश दिए हैं कि आवारा कुत्तों और बंदरों के हमलों को रोकने के लिए ठोस योजना बनाई जाए। लेकिन आदेश कागज़ से बाहर नहीं निकलते। कुत्तों के लिए वैक्सीनेशन और स्टरलाइजेशन की बातें होती हैं, मगर बंदरों पर योजना ही अस्पष्ट है।

समस्या की जड़ें मानव-वन्यजीव संघर्ष: जंगलों की कटाई और भोजन के प्राकृतिक स्रोत खत्म होने से बंदर बस्तियों में घुस आए हैं। लापरवाह कूड़ा प्रबंधन: नगर पालिकाएं खुले में कूड़ा फेंकने की अनुमति देकर बंदरों को आसान भोजन मुहैया कराती हैं। धार्मिक भावनाओं का बहाना: बंदरों को ‘हनुमानजी का रूप’ मानकर नियंत्रित करने में भी प्रशासन कतराता है, मानो सुरक्षा से ज्यादा जरूरी दिखावा हो।

नागरिक क्या करें? संगठित दबाव: मोहल्ला-स्तर पर हस्ताक्षर अभियान चलाकर जिलाधिकारी व नगर पालिका को लिखित में ठोस कार्ययोजना की मांग करें। मीडिया एक्सपोजर: हर हमले, हर घायल की फोटो-वीडियो वायरल करें ताकि समस्या छुपाई न जा सके।

  • जनहित याचिका: हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में PIL दाखिल कर स्थानीय प्रशासन की जवाबदेही तय करवाई जाए।
  • सुरक्षा इंतज़ाम: अस्थायी रूप से छतों और गलियों में जाली, अल्ट्रासोनिक रिपेलर, या प्रोफेशनल एनिमल कंट्रोल सेवाओं का प्रयोग।

कठोर सवाल नगर पालिकाएं सालाना करोड़ों का पशु नियंत्रण बजट कहां खर्च कर रही हैं सुप्रीम कोर्ट के आदेशों पर अमल न करने वाले अफसरों पर क्या कार्रवाई हुई? क्या हमें नागरिकों की जान से ज्यादा “कथित धार्मिक भावनाओं” की रक्षा करनी है?

जब तक नागरिक चुप रहेंगे, बंदर छतों पर और अफसर कुर्सियों पर समान रूप से नाचते रहेंगे।आखिर जिला धिकारी , नगरपालिका ओर वन विभाग क्यों समस्या को नहीं निहारते.

राजेंद्र नाथ तिवारी,कौटिल्य फाउंडेशन,भारत


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