"शिक्षा के नाम पर संस्कृति की हत्या: तिलक मिटवाया, कलावा कटवाया"
- "तिलक से चिढ़ और कलावे से डर: गुरू या विचारधारा का एजेंट?"
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- "तिलक मिटाने वाला शिक्षक निलंबित, पर मानसिकता अब भी सक्रिय"
- "तिलक और कलावा देशद्रोह? शिक्षा के मंदिर में संस्कारों की बेइज्जती
"स्कूल में संस्कृति पर प्रहार: शिक्षा के मंदिर में पहचान का संकट"
मऊ, उत्तरप्रदेश
उत्तर प्रदेश के मऊ जिले के एक सरकारी विद्यालय से आई घटना ने न केवल शैक्षणिक जगत को, बल्कि सामाजिक चेतना को भी झकझोर दिया है। एक सहायक अध्यापक द्वारा छात्रों के हाथों से कलावा (मौली) कटवाना और माथे से तिलक मिटवाने का कृत्य केवल एक शिक्षक का व्यक्तिगत आचरण नहीं, बल्कि यह उस मानसिकता का प्रतिफल है जो धीरे-धीरे भारतीय सांस्कृतिक जड़ों को कमजोर करने की साजिश में बदलती जा रही है।
भारत जैसे विविधता से परिपूर्ण देश में प्रतीकों और परंपराओं का अपना सामाजिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक महत्व है। तिलक और कलावा कोई महज धार्मिक प्रतीक नहीं हैं, ये भारतीय पहचान के गहरे सांस्कृतिक चिन्ह हैं, जिनका संबंध श्रद्धा, संस्कृति, संस्कार और पारिवारिक मूल्यों से है। जब एक शिक्षक – जिसे समाज ‘गुरु’ कहकर आदर देता है – इन प्रतीकों को नष्ट करने का प्रयास करता है, तो यह शिक्षा के मंदिर में आस्था के अपमान के समान है।
बेसिक शिक्षा अधिकारी (BSA) द्वारा आरोपी शिक्षक को तत्काल प्रभाव से निलंबित किया जाना प्रशासनिक रूप से उचित कदम है, पर सवाल सिर्फ सजा का नहीं, मानसिकता की पहचान और उसका इलाज करने का है। इस घटना को केवल "एकल दोष" मान लेना खतरनाक होगा। इससे यह भी प्रश्न उठता है कि क्या शिक्षा व्यवस्था में कुछ ऐसे तत्व घुस चुके हैं जो छात्र-छात्राओं के मन में स्वयं की संस्कृति को लेकर हीन भावना भरना चाहते हैं?
यदि विद्यालयों में ‘संवेदनशीलता की शिक्षा’ देने वाले शिक्षक ही धर्म, संस्कृति और व्यक्तिगत पहचान का दमन करेंगे, तो फिर स्कूलों और मदरसों, मंदिरों और चर्चों में फर्क ही क्या रह जाएगा? क्या यह घटना ‘धर्मनिरपेक्षता’ के नाम पर एक पक्षीय सांस्कृतिक सेंसरशिप की शुरुआत नहीं है?
यह भी जरूरी है कि इस प्रकरण की निष्पक्ष जांच हो, ताकि यह पता लगाया जा सके कि यह कृत्य व्यक्तिगत विचार का था या किसी व्यापक विचारधारा का हिस्सा। साथ ही, सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि शिक्षकों की नियुक्ति में केवल योग्यता ही नहीं, उनके सामाजिक दृष्टिकोण और भारतीय मूल्यों के प्रति संवेदनशीलता का भी परीक्षण हो।
इस प्रकरण ने न केवल एक स्कूल, बल्कि पूरे समाज को एक बार फिर से सोचने पर मजबूर कर दिया है — कि हम किस दिशा में जा रहे हैं? शिक्षा का उद्देश्य क्या है? और सबसे महत्वपूर्ण — क्या हमारी आने वाली पीढ़ी अपनी पहचान, अपनी संस्कृति और अपनी जड़ों से दूर हो रही है?
राजेंद्र नाथ तिवारी