रेस के घोड़े, बाराती घोड़े और लंगड़े घोड़े।"
कांग्रेस का अश्वशास्त्र: घोड़े या गधे?
अस्तबल दुरुस्त किए बिना रेस नहीं जीती जाती
वरिष्ठ कांग्रेस नेता और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी को इस बात का श्रेय यकीनन देना पड़ेगा कि उन्होंने राजनीति के चरागाह में घोड़े, उनके प्रकार और सियासी ट्रीटमेंट को लेकर दिलचस्प बहस छेड़ दी है। इससे यह भी प्रतीत होता है कि हाल के वर्षों में उन्होंने अश्वशास्त्र का बारीकी से अवलोकन किया है। पहले गुजरात और अब मप्र में उन्होंने जिस तरह से कांग्रेस में राजनीतिक घोड़ों की पहचान कर उनके इलाज की संभावनाएं बताई और जगाई हैं, उसे आधुनिक भारत की राजनीतिक ‘शालिहोत्रसंहिता’ कहें तो गलत न होगा।
राजनीति में कब कौन-सा मुद्दा सियासी विमर्श का केंद्र बन जाए, कहना मुश्किल है। इस बार कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भारतीय राजनीति में एक नई शब्दावली को जन्म दिया है — "रेस के घोड़े, बाराती घोड़े और लंगड़े घोड़े।"
राहुल गांधी के इस बयान ने कांग्रेस के भीतर की दशा-दिशा और नेतृत्व क्षमता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। गुजरात से लेकर मध्य प्रदेश तक उनके "संगठन सृजन अभियान" में घोड़ों की राजनीति चर्चा का विषय बन गई है। ये बयान जितना दिलचस्प है, उतना ही कांग्रेस की हालत पर तीखा व्यंग्य भी करता है।
कांग्रेस का अश्वशास्त्र: घोड़े या गधे?
प्राचीन भारत में अश्वशास्त्र के ज्ञाता शालिहोत्र ने घोड़ों के स्वभाव और उपयोग पर जो ज्ञान दिया था, उसे राहुल गांधी ने 21वीं सदी की कांग्रेस पर लागू किया है। लेकिन फर्क इतना है कि घोड़ों से ज्यादा ज़रूरत अब अच्छे सवारों की है।
राहुल के अनुसार कांग्रेस में तीन किस्म के घोड़े हैं:
रेस के घोड़े: जो संघर्ष करते हैं लेकिन सही वक्त पर नजरअंदाज कर दिए जाते हैं।
बाराती घोड़े: जो चुनाव के मौसम में प्रकट होते हैं, बाकी समय सियासी चारागाह में चरते रहते हैं।
लंगड़े घोड़े: जो अब पार्टी के लिए सिर्फ बोझ बन चुके हैं, लेकिन फिर भी अस्तबल में जमे हुए हैं।
राजनीति या प्रतीकवाद?
जब राहुल गांधी यह कहते हैं कि "रेस के घोड़ों को बारात में भेज दिया जाता है और बारातियों से दौड़ लगवाई जाती है," तो सवाल उठता है — इस अदलाबदली के लिए जिम्मेदार कौन है? क्या कांग्रेस नाम की संस्था गांधी परिवार से अलग कोई अस्तित्व रखती है?
यह बयान प्रतीकात्मक जरूर है, लेकिन कांग्रेस की वर्षों पुरानी बीमारियों को उजागर करता है —
गुटबाजी, नेतृत्व की अनिर्णयता, अनुशासनहीनता और अवसरवादी घेराबंदी।
कठोर फैसलों की घुड़दौड़
अब सवाल है कि क्या राहुल गांधी में इतना नेतृत्वबल और संकल्प है कि वे 'लंगड़े घोड़ों' को अस्तबल से बाहर निकाल सकें? या यह सारा घोड़ा विमर्श सिर्फ मीडिया की सुर्खियों तक ही सीमित रहेगा?
आज कांग्रेस को न सिर्फ अच्छे घोड़ों की, बल्कि एक ऐसे सवार की जरूरत है जो उन्हें सही दिशा में मोड़ सके।
वर्ना टट्टुओं और ठेकेदारी संस्कृति के बीच पार्टी सत्ता की रेस में और पीछे छूट जाएगी।
अस्तबल दुरुस्त किए बिना रेस नहीं जीती जाती
भाजपा की आलोचना में राहुल जितना साहस दिखा रहे हैं, उतना ही साहस उन्हें अपनी पार्टी के भीतर दिखाना होगा।
क्योंकि असली नेतृत्व वही होता है जो ‘बारातियों’ और ‘लंगड़ों’ के बीच से भी विजेता ‘रेसर्स’ तैयार कर सके।कांग्रेस की असली जरूरत बयानबाज़ी नहीं, बल्कि संगठनात्मक अनुशासन और सशक्त रणनीति है।
वरना हर बार ‘रेस’ से पहले ‘रेस्ट’ हो जाना उसकी नियति बन जाएगा।