जातिगत जनगणना,एक रहेंगे तो सेफ रहेंगे मोदी, बटेंगे तो कटेंगे योगी


 जातिगत जनगणना पर क्यों तैयार हुआ संघ ? क्या है मोदी सरकार की मंशा,

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मोदी कैबिनेट में एक बड़ा फैसला लिया गया. जिसके तहत अब

सरकार जातिगत जनगणना कराएगी. जिसके बाद अब पूरी पार्टी अपने इस फैसले को सही ठहराने में लग गई है. कैबिनेट के फैसले के बाद गृहमंत्री अमित शाह से लेकर सीएम योगी तक ने पार्टी के इस फैसले पर अपनी सहमति जताई. लेकिन इस फैसले से पहले, बीजेपी को अपने इस निर्णय पर आने में सालों तक मंथन करना पड़ा और ये फैसला लेना आसान भी नहीं रहा.

बीजेपी का मानना रहा है कि जातिगत राजीनीति और जातिगत जनगणना हिन्दू को बांटने के लिए उठाए जा रहे मुद्दे हैं. बीजेपी हमेशा हिंदुत्व को अपनी विचारधारा का प्रमुख अंग माना है. उसके हिंदुत्व का मानना रहा है कि जाति की बजाय धर्म पर केंद्रित रहा जाए. इसका प्रमुख उदाहरण मंडल कमीशन रहा. जब वी पी सिंह ने मंडल कमीशन को लागू करने का फैसला लिया था. तब बीजेपी और संघ ने इसे हिन्दू समाज को तोड़ने वाला फैसला करार दिया. इसके खिलाफ़ बीजेपी नेतृत्व ने राममंदिर रथ यात्रा निकालने का फैसला लिया था.

पार्टी नेतृत्व और संघ का मानना था कि वी पी सिंह के समाज बांटने के कदम को राम मंदिर रथयात्रा से एकजुट किया जाएगा. यानि जाति की बजाय धर्म को प्रमुखता दिया गया. यही नहीं बीजेपी ने वी पी सिंह सरकार से समर्थन वापस लेकर वी पी सिंह की सरकार गिरा दिया. चंद्रशेखर पीएम बने थे. जातिगत राजनीति का विरोध करने और धर्म को ऊपर रखने का शुरुआत में पार्टी को सियासी फ़ायदा भी हुआ. लेकिन बाद में बिहार और यूपी जैसे राज्य जातिगत बंटवारे में ऐसा बंटा कि बीजेपी के लिये सत्ता दूर होते चली गई. उस समय बिहार और यूपी के अलावा झारखंड और उत्तराखंड भी शामिल थे. यानी इतने बड़े राज्य में पार्टी की हालत खस्ताहाल होते गई.

ऐसे में संघ और बीजेपी दोनों में मंथन हुआ कि जात की काट के लिए क्या जाति की ही राजनीति की जाए. हालांकि ओपनली तो नहीं लेकिन बीजेपी और संघ ये मानकर चलने लगी कि अब इसे नकारा नहीं जा सकता. भले ही खुलेआम इसकी वकालत न कि जाए. यही वजह है कि 2005 में बीजेपी ने बिहार में लालू की काट के लिये ओबीसी और जाति का सहारा ही लिया.

15 साल से सत्ता में जमे लालू यादव को हराने के लिए बीजेपी ने एक नई रणनीति का ईजाद किया था. तब बीजेपी के बड़े नेताओं में से एक प्रमोद महाजन ने अरुण जेटली से विचार विमर्श और जमीनी हक़ीक़त का मुवायना कर नीतीश को एनडीए के नेता बनवाने का फैसला लिया. लेकिन पार्टी नेतृत्व और संघ को इसे स्वीकार करवाना आसान नहीं था. लेकिन जाति की राजनीति की काट, जाति से ही दिया जा सकता है और उनके इस दलील को अटल - आडवाणी को मानना तो पड़ा ही संघ को भी अपनी सहमति देनी पड़ी. जबकि उस समय न तो नीतीश का कोई बड़ा कद था और न ही उनकी पार्टी का बीजेपी के सामने कोई खास वजूद था. लेकिन नीतीश पर दांव सफल रहा और बीजेपी की राजनीति में 360 डिग्री का बदलाव ला दिया.

पार्टी ने मध्यप्रदेश में भी एक नया सीएम बनाकर भेजा. यानी सवर्णों की पार्टी के तगमे से बाहर आकर बीजेपी भी ओबीसी और जात की राजनीति करने लगी. हालांकि अभी भी पार्टी खुलकर इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं हुई. वैसे ओबीसी और जात की माइक्रो मैनेजमेंट का असर उसे समझ में आ गया था. हालांकि उमा भारती और कल्याण सिंह भी पार्टी के सीएम रहे लेकिन पिछड़ों की बजाय उनकी पहचान हिंदुत्व के पुरोधा के रूप में ही रही. संघ भी अब उसी धारा में चलने को तत्पर होने लगी. पर समाज पूरी तरह से न बट जाए, इसका डर हमेशा रहा उसे.

धीरे धीरे समय दर समय और चुनाव दर चुनाव बीजेपी अब अंदरखाने जात को तरजीह देने लगी. लेकिन इसमें बड़ा बदलाव आया 2013 - 2014 से. मोदी - शाह - जेटली की तिकड़ी ने लोक सभा चुनाव में इसको सबसे ऊपर रखा चुनाव जीतने के लिए. मोदी लहर के वावजूद उम्मीदवारों का जात और उस लोकसभा क्षेत्र की जातीय समीकरण का पूरा ख्याल रखा गया. मोदी सरकार में आने के बाद ओबीसी कमीशन को संवैधानिक दर्जा दिया गया. यहां तक कि जब सुप्रीम कोर्ट ने SC_ST आरक्षण में प्रमोशन को लेकर फैसला लिया तो मोदी सरकार ने संसद में बिल लेकर उसे पलट दिया था.

पर अभी भी बीजेपी जातिगत जनगणना को मानने को तैयार नहीं थी. संघ भी इसको एक्सेप्ट नहीं किया. उधर दूसरी ओर बीजेपी से हर फ्रंट पर मात खा रही कांग्रेस और उसके नेता राहुल गांधी जातिगत जनगणना को लेकर सरकार पर लगातार दबाव बना रहे थे. इसमें तेजस्वी, अखिलेश सहित दक्षिण की इंडिया गठबंधन के सुर भी मिल गए. इसके पहले नीतीश कुमार भी जातिगत जनगणना को लेकर अपना रुख साफ कर दिया था. जब नीतीश ने इसपर सर्वदलीय बैठक बुलाई तब सरकार में शामिल बीजेपी को इसका समर्थन दबे मन से ही करना पड़ा था.

पर बीजेपी और संघ सार्वजिनक तौर पर इसे समाज को तोड़ने वाला ही करार देते रहे. जबकि बीजेपी और संघ में इसको लेकर लगातार विचार विमर्श किया जा रहा था. अंत में पहल संघ ने की. पिछले साल पलक्कड़ में संघ ने जातिगत जनगणना के समर्थन किया पर ये भी कहा कि इसका राजनीतिक उपयोग न किया जाए. अब फैसला बीजेपी को लेना था. माना जाता है कि पार्टी के इस फैसले पर मुहर पीएम मोदी और संघ प्रमुख मोहन भागवत के बीच हुई बैठक में ले लिया गया. वैसे भी बिहार, तमिलनाडु, बंगाल जैसे राज्यों में विधानसभा चुनाव को देखते हुए सरकार के इस फैसले को महत्वपूर्ण माना जा रहा है.

हालांकि पीएम मोदी ने हाल के चुनाव में एक नारा दिया था, हम एक रहेंगे तो सेफ रहेंगे, इसके अलावा यूपी सीएम योगी आदित्यनाथ ने दिया था कि बटेंगे, तो कटेंगे इसका कितना असर रह पाएगा सरकार के फैसले के बाद अब देखने वाली बात होगी. सवाल ये भी है कि क्या जातिगत जनगणना से समाज बटेगा या जुटेगा? जातिगत जनगणना के बाद आरक्षण की सीमा बढ़ाने को लेकर क्या मांग नहीं उठेगी ? और क्या इसके बाद हिंदुत्व की नई परिभाषा गढ़ी जाएगी ? उस

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