नीति और नियति किसी कब बदल जाय इसका कोई ठिकाना नहीं.सब प्रारब्ध है.देश के अन्यान्य महापुरुषों में अष्टावक्र का स्थान सर्वोपरि है श्रीकृष्ण के कुरुक्षेत्र की गीता राजनीति,नीति,शत्रु भेद कूटनीति की है पर अष्टावक्र की गीता जनक_ अष्टावक्र संवाद, श्रीकृष्ण _अर्जुन संवाद हुआ अवश्य पर
अष्टावक्र मोक्ष , ज्ञान और भक्ति के प्रदर्शक हैं और श्रीकृष्ण के पास जीवन की जटिलताओं का समाधान है.नई जीवंत पौध अष्टावक्र और श्री कृष्ण की गीता को एक ही चश्मे से नहीं देश सकती.जन्म से विसंगतियां दोनों के साथ थी पर अष्टावक्र की विसंगतियां कृष्ण से बहुत आगे हैं.
अष्टावक्र इतने प्रकाण्ड विद्वान थे कि माँ के गर्भ से ही अपने पिताजी "कहोड़" को अशुद्ध वेद पाठ करने के लिये टोंक दिए जिससे क्रुद्ध होकर पिताजी ने आठ जगह से टेड़ें हो जाने का श्राप दे दिया था।अष्टावक्र अद्वैत वेदान्त के महत्वपूर्ण ग्रन्थ अष्टावक्र गीता के ऋषि हैं। अष्टावक्र गीता अद्वैत वेदान्त का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है।अष्टावक्र' का अर्थ 'आठ जगह से टेढा' होता है।कहते हैं कि अष्टावक्र का शरीर आठ स्थानों से टेढ़ा था।
उद्दालक ऋषि के पुत्र का नाम श्वेतकेतु था। उद्दालक ऋषि के एक शिष्य का नाम कहोड़ था। कहोड़ को सम्पूर्ण वेदों का ज्ञान देने के पश्चात् उद्दालक ऋषि ने उसके साथ अपनी रूपवती एवं गुणवती कन्या सुजाता का विवाह कर दिया। कुछ दिनों के बाद सुजाता गर्भवती हो गई। एक दिन कहोड़ वेदपाठ कर रहे थे तो गर्भ के भीतर से बालक ने कहा कि पिताजी! आप वेद का गलत पाठ कर रहे हैं। यह सुनते ही कहोड़ क्रोधित होकर बोले कि तू गर्भ से ही मेरा अपमान कर रहा है इसलिये तू आठ स्थानों से वक्र (टेढ़ा) हो जायेगा।
हठात् एक दिन कहोड़ राजा जनक के दरबार में जा पहुँचे। वहाँ बंदी से शास्त्रार्थ में उनकी हार हो गई। हार हो जाने के फलस्वरूप उन्हें जल में डुबा दिया गया। इस घटना के बाद अष्टावक्र का जन्म हुआ। पिता के न होने के कारण वह अपने नाना उद्दालक को अपना पिता और अपने मामा श्वेतकेतु को अपना भाई समझता था। एक दिन जब वह उद्दालक की गोद में बैठा था तो श्वेतकेतु ने उसे अपने पिता की गोद से खींचते हुये कहा कि हट जा तू यहाँ से, यह तेरे पिता का गोद नहीं है। अष्टावक्र को यह बात अच्छी नहीं लगी और उन्होंने तत्काल अपनी माता के पास आकर अपने पिता के विषय में पूछताछ की। माता ने अष्टावक्र को सारी बातें सच-सच बता दीं।
अपनी माता की बातें सुनने के पश्चात् अष्टावक्र अपने मामा श्वेतकेतु के साथ बंदी से शास्त्रार्थ करने के लिये राजा जनक के यज्ञशाला में पहुँचे। वहाँ द्वारपालों ने उन्हें रोकते हुये कहा कि यज्ञशाला में बच्चों को जाने की आज्ञा नहीं है। इस पर अष्टावक्र बोले कि अरे द्वारपाल! केवल बाल श्वेत हो जाने या अवस्था अधिक हो जाने से कोई बड़ा व्यक्ति नहीं बन जाता। जिसे वेदों का ज्ञान हो और जो बुद्धि में तेज हो वही वास्तव में बड़ा होता है। इतना कहकर वे राजा जनक की सभा में जा पहुँचे और बंदी को शास्त्रार्थ के लिये ललकारा।
अष्टावक्र भरी सभा में जाकर खड़े हो गए। उनका आठ जगहों से टेढ़ा-मेढ़ा शरीर और अजीब चाल देखकर सारी सभा हँसने लगी। अष्टावक्र यह नजारा देखकर सभाजनों से भी ज्यादा जोर से खिलखिलाकर हँसे।
जनक ने पूछा, 'सब हँसते हैं, वह तो मैं समझ सकता हूँ, लेकिन बेटे, तेरे हँसने का कारण बता?
अष्टावक्र ने कहा, 'मैं इसलिए हँस रहा हूँ कि इन चमारों की सभा में सत्य का निर्णय हो रहा है, आश्चर्य! ये चमार यहाँ क्या कर रहे हैं।'यहाँ चमार शब्द का अर्थ था,चमड़ी का पारखी।
सारी सभा में सन्नाटा छा गया। सब अवाक् रह गए। राजा जनक खुद भी सन्न रह गए। उन्होंने बड़े संयत भाव से पूछा, 'चमार!!! तेरा मतलब क्या?'
अष्टाव्रक ने कहा, 'सीधी-सी बात है। इनको चमड़ी ही दिखाई पड़ती है, मैं नहीं दिखाई पड़ता। ये चमार हैं। चमड़ी के पारखी हैं। इन्हें मेरे जैसा सीधा-सादा आदमी दिखाई नहीं पड़ता, इनको मेरा आड़ा-तिरछा शरीर ही दिखाई देता है। राजन, मंदिर के टेढ़े होने से आकाश कहीं टेढ़ा होता है? घड़े के फूटे होने से आकाश कहीं फूटता है? आकाश तो निर्विकार है। मेरा शरीर टेढ़ा-मेढ़ा है लेकिन मैं तो नहीं। यह जो भीतर बसा है, इसकी तरफ तो देखो। मेरे शरीर को देखकर जो हँसते हैं, वे चमार नहीं तो क्या हैं?
यह सुनकर मिथिला देश के नरेश एवं भगवान राम के श्वसुर राजा जनक सन्न रह गए। जनक को अपराधबोध हुआ कि सब हँसे तो ठीक, लेकिन मैं भी इस बालक के शरीर को देखकर हँस दिया। राजा जनक के जीवन की सबसे बड़ी घटना थी। देश का सबसे बड़ा ताम-झाम। सबसे सुंदर गायें। सबसे महँगे हीरे-जवाहरात। सबसे विद्वान पंडित और सारे संसार में इस कार्यक्रम का समाचार और सिर्फ एक ही झटके में सब कुछ खत्म। जनक को बहुत पश्चाताप हुआ। सभा भंग हो गई।
रातभर राजा जनक सो न सके। दूसरे दिन सम्राट जब घूमने निकले तो उन्हें वही बालक अष्टावक्र खेलते हुए नजर आया। वे अपने घोड़े से उतरे और उस बालक के चरणों में गिर पड़े। कहा- 'आपने मेरी नींद तोड़ दी। आपमें जरूर कुछ बात है। आत्मज्ञान की चर्चा करने वाले शरीर पर हँसते हैं तो वे कैसे ज्ञानी हो सकते हैं। प्रभु आप मुझे ज्ञान दो।'
राजा जनक ने अष्टावक्र की परीक्षा लेने के लिये पूछा कि वह पुरुष कौन है जो तीस अवयव, बारह अंश, चौबीस पर्व और तीन सौ साठ अक्षरों वाली वस्तु का ज्ञानी है? राजा जनक के प्रश्न को सुनते ही अष्टावक्र बोले कि राजन्! चौबीस पक्षों वाला, छः ऋतुओं वाला, बारह महीनों वाला तथा तीन सौ साठ दिनों वाला संवत्सर आपकी रक्षा करे। अष्टावक्र का सही उत्तर सुनकर राजा जनक ने फिर प्रश्न किया कि वह कौन है जो सुप्तावस्था में भी अपनी आँख बन्द नहीं रखता? जन्म लेने के उपरान्त भी चलने में कौन असमर्थ रहता है? कौन हृदय विहीन है? और शीघ्रता से बढ़ने वाला कौन है? अष्टावक्र ने उत्तर दिया कि हे जनक! सुप्तावस्था में मछली अपनी आँखें बन्द नहीं रखती। जन्म लेने के उपरान्त भी अंडा चल नहीं सकता। पत्थर हृदयहीन होता है और वेग से बढ़ने वाली नदी होती है।
अष्टावक्र के उत्तरों को सुकर राजा जनक प्रसन्न हो गये और उन्हें बंदी के साथ शास्त्रार्थ की अनुमति प्रदान कर दी। बंदी ने अष्टावक्र से कहा कि एक सूर्य सारे संसार को प्रकाशित करता है, देवराज इन्द्र एक ही वीर हैं तथा यमराज भी एक है। अष्टावक्र बोले कि इन्द्र और अग्निदेव दो देवता हैं। नारद तथा पर्वत दो देवर्षि हैं, अश्वनीकुमार भी दो ही हैं। रथ के दो पहिये होते हैं और पति-पत्नी दो सहचर होते हैं। बंदी ने कहा कि संसार तीन प्रकार से जन्म धारण करता है। कर्मों का प्रतिपादन तीन वेद करते हैं। तीनों काल में यज्ञ होता है तथा तीन लोक और तीन ज्योतियाँ हैं। अष्टावक्र बोले कि आश्रम चार हैं, वर्ण चार हैं, दिशायें चार हैं और ओंकार, आकार, उकार तथा मकार ये वाणी के प्रकार भी चार हैं। बंदी ने कहा कि यज्ञ पाँच प्रकार के होते हैं, यज्ञ की अग्नि पाँच हैं, ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच हैं, पंच दिशाओं की अप्सरायें पाँच हैं, पवित्र नदियाँ पाँच हैं तथा पंक्ति छंद में पाँच पद होते हैं। अष्टावक्र बोले कि दक्षिणा में छः गौएँ देना उत्तम है, ऋतुएँ छः होती हैं, मन सहित इन्द्रयाँ छः हैं, कृतिकाएँ छः होती हैं और साधस्क भी छः ही होते हैं। बंदी ने कहा कि पालतू पशु सात उत्तम होते हैं और वन्य पशु भी सात ही, सात उत्तम छंद हैं, सप्तर्षि सात हैं और वीणा में तार भी सात ही होते हैं। अष्टावक्र बोले कि आठ वसु हैं तथा यज्ञ के स्तम्भक कोण भी आठ होते हैं। बंदी ने कहा कि पितृ यज्ञ में समिधा नौ छोड़ी जाती है, प्रकृति नौ प्रकार की होती है तथा वृहती छंद में अक्षर भी नौ ही होते हैं। अष्टावक्र बोले कि दिशाएँ दस हैं, तत्वज्ञ दस होते हैं, बच्चा दस माह में होता है और दहाई में भी दस ही होता है। बंदी ने कहा कि ग्यारह रुद्र हैं, यज्ञ में ग्यारह स्तम्भ होते हैं और पशुओं की ग्यारह इन्द्रियाँ होती हैं। अष्टावक्र बोले कि बारह आदित्य होते हैं बारह दिन का प्रकृति यज्ञ होता है, जगती छंद में बारह अक्षर होते हैं और वर्ष भी बारह मास का ही होता है। बंदी ने कहा कि त्रयोदशी उत्तम होती है, पृथ्वी पर तेरह द्वीप हैं।...... इतना कहते कहते बंदी श्लोक की अगली पंक्ति भूल गये और चुप हो गये। इस पर अष्टावक्र ने श्लोक को पूरा करते हुये कहा कि वेदों में तेरह अक्षर वाले छंद अति छंद कहलाते हैं और अग्नि, वायु तथा सूर्य तीनों तेरह दिन वाले यज्ञ में व्याप्त होते हैं।
इस प्रकार शास्त्रार्थ में बंदी की हार हो जाने पर अष्टावक्र ने कहा कि राजन्! यह हार गया है, अतएव इसे भी जल में डुबो दिया जाये। तब बंदी बोला कि हे महाराज! मैं वरुण का पुत्र हूँ और मैंने सारे हारे हुये ब्राह्मणों को अपने पिता के पास भेज दिया है। मैं अभी उन सबको आपके समक्ष उपस्थित करता हूँ। बंदी के इतना कहते ही बंदी से शास्त्रार्थ में हार जाने के पश्चात जल में डुबोये गये सार ब्राह्मण जनक की सभा में आ गये जिनमें अष्टावक्र के पिता कहोड़ भी थे।
अष्टावक्र ने अपने पिता के चरणस्पर्श किये। तब कहोड़ ने प्रसन्न होकर कहा कि पुत्र! तुम जाकर समंगा नदी में स्नान करो, उसके प्रभाव से तुम मेरे शाप से मुक्त हो जाओगे। तब अष्टावक्र ने इस स्थान में आकर समंगा नदी में स्नान किया और उसके सारे वक्र अंग सीधे हो गये।।
राजेंद्र नाथ तिवारी