केजरीवाल तो निपट गए मगर कांग्रेस के लिए मुख्य चुनौती मोदी
अब कांग्रेस पार्टी टर्निग प्वाइंट पर आ खड़ी है, जहां उसे सोचना ही पड़ेगा आगे क्या करें क्या न करें
कांग्रेस का स्वभाव सुरसा राक्षसी जैसा है,अब उसे भाजपा रूपी हनुमान मिलेगा है ,जो सीता का पता लगाएगा,लंका कांड भी और लंका विजय भी.दिल्ली की राक्षसी संस्कृति को विनष्ट करना भी हनुमान का अभी अभीप्रेत था. वह रोग बिहार और पश्चिम बंगाल में भी आपरेशन कोआप्लावित है कांग्रेस की स्थिति दांव पर है,उसकी शाख को कटरा ही नहीं शाख बची ही नहीं है. जहां से कांग्रेस को आगे सोचना होगा। कांग्रेस को इसलिए कि वह राष्ट्रव्यापी दल है। सबसे बड़ा विपक्षी दल। बाकी विपक्षी दल उससे लड़ लिए, साथ भी आए, मोदी की तरफ भी झुके मगर कोई भी पूरे देश में अपनी वह स्थिति नहीं बना सका जो कांग्रेस की है। कमजोर से कमजोर होने के बावजूद वह हर गांव-मोहल्ले में है। इसलिए मोदी के खिलाफ अगर कोई लड़ सकता है तो वह कांग्रेस ही है।
सिर्फ आम आदमी पार्टी के बीच से हटने से कांग्रेस खुश नहीं हो सकती! कांग्रेस को दिल्ली में अपनी जगह वापस लेने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ेगी और यह भी समझना पड़ेगा कि उसने 11 साल कुछ खास नहीं किया।
बीजेपी के सीधे सामने तो वह कई राज्यों में है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, गुजरात कई राज्यों में। और मध्य प्रदेश में तो वह मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले से हार रही है। 21 साल से ज्यादा हो गए। बीच में एक चुनाव 2018 वह जरूर जीती। मगर एक साल से बस कुछ ही समय ज्यादा चल पाई। सरकार बीजेपी ने तोड़ी। मगर कमलनाथ का अहंकार भी कम जिम्मेदार नहीं है। ज्योतिरादित्य सिंधिया ही भाजपा में जाने वाले एकमात्र ऐसे नेता हैं, जिनके पास कोई कारण था। कमलनाथ लगातार जिस तरह उनकी अनसुनी कर रहे थे और अंत में जिस तरह यह कहकर उकसाया कि उतर जाओ सड़क पर वह किसी भी बड़े नेता के लिए सुनना मुश्किल था। तो मध्य प्रदेश में जहां बीच में कोई नहीं है कांग्रेस कम बैक नहीं कर पाई। इसलिए सिर्फ यह सोच कर खुश
होना कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी के निपट जाने से कांग्रेस अपने आप मजबूत हो जाएगी वही सोच है जो 2014 से तमाम कांग्रेसी नेता लिए घूम रहे हैं कि केन्द्र से कभी तो मोदी हटेंगे फिर हम ही को आना है।
मध्य प्रदेश का केस इसे समझने के लिए सबसे सटीक है। वहां उमा भारती जैसी बड़ी नेता को हटाकर उस समय कम परिचित चेहरे शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री बना दिया था तो वह भी करीब 18 साल रह गए और उनके बाद आए मोहन यादव को और भी कम लोग जानते थे, मगर वे भी चल गए। ऐसे ही राजस्थान में भजनलाल शर्मा या महाराष्ट्र में जब 2014 में देवेन्द्र फड़नवीस को लाया गया था तो उनकी भी कोई खास पहचान नहीं थी। तो सामने कोई कमजोर भी हो तब भी आप को उसका मुकाबला करने, हटाने के लिए काम तो करना होगा। अब वह समय नहीं है कि जनता सिर्फ किसी से नाराज होने की वजह से दूसरे को चुन ले।
मोदी कुछ नहीं दे रहे। नौकरी, रोजगार, महंगाई कम करना कुछ नहीं। केवल अपनी बातों के सहारे तीसरी बार केन्द्र में सत्ता में आ गए। क्यों? क्योंकि दूसरी तरफ उन्हें विपक्ष में जीत की ललक, भूख, तड़प दिखाई नहीं देती। जैसे घुड़दौड़ में दांव उसी घोड़े पर लगाया जाता है जो स्टाटिंग लाइन पर थका सा खड़ा नहीं होता, दौड़ने के लिए बेताब होता है।
समाजवादी पार्टी अभी मिल्कीपुर उप चुनाव हार गई। सबको मालूम था कि सरकार और प्रशासन इस चुनाव को हर हाल में जीतने के लिए कमर कस चुके हैं। मगर नतीजे आने के बाद तक अखिलेश यादव ने अपने तेवर ढीले नहीं छोड़े। लड़ते रहे।
ऐसे ही ममता बनर्जी बंगाल में लगातार लड़ीं। बिहार में तेजस्वी लड़ रहे हैं। ऐसे मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, गुजरात, उत्तराखंड में कांग्रेस कहीं लड़ते हुए दिखती है?
यही वह पाइंट है जहां से कांग्रेस को आगे सोचना होगा। काग्रेस को इसलिए कि वह राष्ट्रव्यापी दल है। सबसे बड़ा विपक्षी दल। बाकी विपक्षी दल उससे लड़ लिए, साथ भी आए, मोदी की तरफ भी झुके मगर कोई भी पूरे देश में अपनी वह स्थिति नहीं बना सका जो कांग्रेस की है। कमजोर से कमजोर होने के बावजूद
वह हर गांव-मोहल्ले में है। इसलिए मोदी के खिलाफ अगर कोई लड़ सकता है तो वह कांग्रेस ही है। बाकी कोई भी विपक्षी दल इस स्थिति में नहीं है। और न ही वे सब मिलकर माइनस कांग्रेस यह कर सकते हैं।
दिल्ली में यह प्रयोग किया था। समाजवादी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस ने की कांग्रेस के विरोध में आम आदमी पार्टी को समर्थन देने का। मगर मोदी नहीं रुके। अब शायद यह दोनों आम आदमी पार्टी का साथ देना छोड़ दें। मगर सिर्फ उससे मोदी कमजोर नहीं होंगे। उसके लिए जरूरी है कि अपने राज्यों के बाहर जहां कांग्रेस भाजपा से सीधे मुकाबले में है वहां कांग्रेस का समर्थन करना। लेकिन उसके लिए कांग्रेस को खुद को मजबूत करना जरूरी है। छोटे-छोटे कारणों से खुश होने से बचने की जरूरत है। 70 और 80 के दशक में भारत की क्रिकेट टीम केवल टेस्ट बचा कर खुश हो जाती थी। हम लोग उस समय ड्रा को जीत मानने लगे थे। बैट्समेन हाफ सेंचुरी से ड्यूटी पूरी मान लेता था और बालर तीन विकेट से टीम में जगह पक्की। उस सोच से कांग्रेस को निकलना होगा। लोकसभा में 240 पर मोदी को रोक दिया अब उससे आगे सोचना होगा। दिल्ली चुनाव का यही सबक है। आम आदमी पार्टी को बीच से हटा दिया ठीक है। मगर अब इतनी मेहनत करने की जरूरत है कि दिल्ली वालों को लगे कि यहां मुख्य विपक्षी दल आम आदमी पार्टी नहीं कांग्रेस है। नेतृत्व पैदा करना पड़ेगा।
खबरों के हिसाब से सही है कि 12 या 15 सीटों पर आम आदमी पार्टी कांग्रेस की वजह से हारी। लेकिन पार्टी को देखना यह चाहिए कि सत्तर में केवल तीन उम्मीदवार अपनी जमानत बचा पाए। उम्मीदवार ही नहीं थे। जिस राज्य में लगातार 15 साल सरकार रही हो वहां नेता नहीं संगठन नहीं। कांग्रेस की समस्याएं बहुत उलझी हुई हैं। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने हरियाणा और महाराष्ट्र की हार के बाद दिल्ली में हुई कांग्रेस वर्किंग कमेटी की मीटिंग में पार्टी की सारी कमजोरियों पर बात की। फिर बेलगावी कर्नाटक की वर्किंग कमेटी में भी। नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने उसके बाद लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बोलते हुए खुले दिल से स्वीकार किया कि रोजगार की समस्या पर उनकी यूपीए सरकार ने भी
उतना काम नहीं किया जितना करना चाहिए था। फिर दिल्ली चुनाव के समय दलित सम्मेलन में कहा कि पार्टी दलितों और पिछड़ों के लिए उतना नहीं किया जितना उसे करना चाहिए था।
तो समस्याएं सब पहचान रहे हैं। मगर उन्हें दूर कौन करेगा कैसे करेगा यह सबसे महत्वपूर्ण है। बुरा बनना पड़ेगा। मठाधीशों को किनारे करना पड़ेगा। नए लोगों को सामने लाना होगा और उसमें यह कटाक्ष सुनना होंगे कि यह कौन हैं? कहां से ले आए?
सबसे बड़ी बात है संगठन का काम सर्वोच्च प्राथमिकता का समझ कर दिलचस्पी से करना होगा। सिलसिला शुरू हो गया है। कांग्रेस अध्यक्ष खरगे और राहुल गांधी ने कुछ मीटिंगें की हैं। इनमें संगठन महासचिव के सी वेणुगोपाल भी शामिल थे। इसे जल्दी पूरा करना होगा।
कांग्रेस ने अपनी बेलगावी वर्किंग कमेटी में कहा है कि यह साल 2025 संगठन का साल होगा। करना चाहिए। एक बार में पूरे संगठन की घोषणा। लोगों को याद भी नहीं होगा कि आखिरी बार कब कांग्रेस का पूरा संगठन बना था। 2004 मेंसोनिया गांधी ने बनाया था। उसके बाद से छोटे-मोटे परिवर्तन होते रहे। कांग्रेस की भाषा में एडजस्टमेंट। लेकिन तमाम राज्यों में जिला ब्लाक लेवल पर कुछ भी नहीं है।
कांग्रेसी भूल गए कि कभी जिला कांग्रेस अध्यक्ष, ब्लाक कांग्रेस अध्यक्ष कितना प्रभावशाली हुआ करते था। इन्दिरा गांधी के यहां सांसद, विधायक को अपाइंटमेंट मिले या न मिले जिला और ब्लाक अध्यक्षों के लिए कभी मना नहीं होता था। सोनिया गांधी ने एक बार दिल्ली में ब्लाक कांग्रेस अध्यक्षों का सम्मेलन करवाया था। वे कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन भी करवाती थीं। अब कम सही मगर फिर भी मुख्यमंत्री तो हैं। इनको एक साथ बिठाकर बात करना चाहिए कि क्या कर रहे हो जो कुछ नया हो जिसे हम देश भर में बता सकें। भाजपा शासित राज्यों से अलग क्या किया? कांग्रेस को मोदी से मुकाबला करने के लिए बहुत सारे मोचर्चों पर काम करने की जरूरत है। केजरीवाल हार गए, मोदी 240 पर रुक गए से आगे सोचने की।
आगे सोचने का कार्य जनता नहीं कांग्रेस व आत्ममुग्ध पीडीए का है
लेखक , तत्वमसि