शब्दों से नहीं अर्थों से जंगसे नहीं4 जीती जाती है शब्दोंविपक्ष की लाठी मे दम और दृष्टिकोण दोनों गायब हे,पूरा विपक्ष धृतराष्ट्र की तरह के4टीवी हीन हो चला है ।उसे के केवल दुर्योधन को सुनना है और वह दुर्योध है राहुल गांधी। श्री कृष्ण महाभारत टालने पर वह कहता है। मुझे तुम्हारी समझ नहीं चाहिए।मुझे धर्म अधर्म सब पता है।वहीं आह विपक्ष कर रहा है।
विपक्ष का "काला दिल, काला कपड़ा, और काली सोच" का नारा न केवल एक राजनीतिक हथकंडा है, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र के मंदिर, संसद, की गरिमा पर एक करारा तमाचा भी है। यह वाक्यांश, जो सुनने में नाटकीय और व्यंग्यात्मक लगता है, दरअसल हमारी राजनीति की उस दकियानूसी मानसिकता को उजागर करता है, जो विरोध को हंगामे, विचार को शोर, और संवाद को नौटंकी में तब्दील कर देती है। आइए, इस पर साहित्यिक विस्तार के साथ एक तीखा, काव्यात्मक, और व्यंग्यात्मक नजरिया डालें, जो विपक्ष के इस रवैये को न केवल नंगा करे, बल्कि उसकी विडंबनाओं को भी उकेरे।
काला कपड़ा: प्रतीक या प्रदर्शन?
काला कपड़ा पहनकर संसद में प्रवेश करना कोई नया तमाशा नहीं। यह एक पुरानी स्क्रिप्ट है, जो हर सत्र में नए मंचन के साथ प्रस्तुत होती है। काला रंग, जो भारतीय संस्कृति में शोक, विरोध, या अन्याय के खिलाफ आवाज का प्रतीक रहा है, अब विपक्ष के हाथों एक सस्ता मंचीय परिधान बन गया है। यह न तो गांधी का सत्याग्रह है, न ही आजादी की लड़ाई का जज्बा। यह महज एक रंगीन नाटक है, जिसमें सांसद मंच पर कलाकार बनकर, काले वस्त्रों में, नारों की माला जपते हैं। लेकिन सवाल यह है—क्या यह काला कपड़ा वाकई जनता के दर्द को दर्शाता है, या यह सिर्फ कैमरों की चमक और सुर्खियों की भूख को तृप्त करता है?
साहित्य की नजर से देखें तो यह काला कपड़ा कवि दुष्यंत कुमार के शब्दों की याद दिलाता है:
"सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।"
लेकिन विपक्ष की यह कोशिश सूरत बदलने की नहीं, बल्कि सियासत चमकाने की लगती है। काले कपड़े में लिपटा उनका विरोध, कविता की तरह गहरा नहीं, बल्कि सड़कछाप नौटंकी की तरह उथला है। यह काला रंग न तो कबीर की स्याही है, जो सत्य को उकेरता हो, न ही निराला की लेखनी, जो व्यवस्था को चुनौती देता हो। यह बस एक रंग है, जो संसद के पवित्र गलियारों में शोर बनकर गूंजता है।
काला दिल: लोकतंत्र का दाग या दर्पण?
"काला दिल" का आरोप विपक्ष पर लगाना आसान है, लेकिन यह महज एक पक्ष की कहानी नहीं। यह उस राजनीतिक संस्कृति का दर्पण है, जिसमें सत्ता और विपक्ष दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू बन गए हैं। विपक्ष का दिल अगर काला है, तो क्या वह सत्ता के उजले चेहरों से बिल्कुल अलग है? नहीं। यह काला दिल उस मानसिकता का प्रतीक है, जो संसद को विचार-विमर्श का मंच नहीं, बल्कि सियासी कुश्ती का अखाड़ा मानती है।
साहित्यिक दृष्टि से यह "काला दिल" हमें मुंशी प्रेमचंद की कहानियों की याद दिलाता है, जहां पंचायत में सत्य की जगह शोर और शक्ति का खेल चलता था। विपक्ष जब मेज पर चढ़ता है, नियम पुस्तिका फाड़ता है, या अध्यक्ष के आसन तक धावा बोलता है, तो वह लोकतंत्र की आत्मा को नहीं, बल्कि उसकी मर्यादा को लहूलुहान करता है। यह वही विपक्ष है, जो कभी अरुण जेटली और सुषमा स्वराज के बयानों को ढाल बनाकर हंगामे को जायज ठहराता है। लेकिन क्या जेटली और स्वराज का हवाला देकर संसद को बंधक बनाना उचित है? यह तो वही बात हुई कि एक गलती को दूसरी गलती से ढंक दिया जाए। कवि रघुवीर सहाय ने ठीक ही कहा था:
"सच को छिपाने की कला में,
सबसे बड़ा हुनर है शोर मचाना।"
विपक्ष का यह शोर न तो सवालों का जवाब देता है, न ही समाधान सुझाता है। यह बस एक काला धब्बा है, जो लोकतंत्र के उजले कैनवास पर फैलता जा रहा है।
काली सोच: विचारों की हार, नारों की जीत
"काली सोच" का तमगा विपक्ष पर चस्पा करना आसान है, लेकिन यह सोच सिर्फ विपक्ष की नहीं, बल्कि हमारी पूरी राजनीतिक बिरादरी की है। ऑपरेशन सिंदूर, पहलगाम नरसंहार, बिहार में मतदाता सूची पुनरीक्षण, या आधार कार्ड की वैधता जैसे गंभीर मुद्दे संसद में उठाए जाने चाहिए। लेकिन क्या इनका जवाब नारेबाजी, पोस्टरबाजी, या काले कपड़ों से मिलेगा? नहीं। यह काली सोच उस मानसिकता को दर्शाती है, जो रचनात्मक बहस की जगह शोर को हथियार बनाती है।
साहित्यिक नजरिए से यह काली सोच उस अंधेरे की तरह है, जिसे हरिवंश राय बच्चन ने अपनी कविता में बयां किया:
"अंधेरे का मोल नहीं,
दीपक की लौ जलानी होगी।"
लेकिन विपक्ष का यह रवैया दीपक जलाने की बजाय, संसद के दीपों को बुझाने का प्रयास है। जब सांसद नियम 267 के तहत चर्चा की मांग करते हैं, लेकिन हंगामे के कारण कार्यवाही स्थगित हो जाती है, तो यह न तो जनता के हित में है, न ही लोकतंत्र के। यह काली सोच उस साहित्यिक खलनायक की तरह है, जो अपनी ही कहानी को बर्बाद कर देता है।
विपक्ष के पास अवसर है कि वह ऑपरेशन सिंदूर पर प्रधानमंत्री से जवाब मांगे, पहलगाम हमले की जांच की मांग करे, या बिहार में मतदाता अधिकारों की रक्षा की बात उठाए। लेकिन इसके लिए जरूरी है स्याही से लिखा तर्क, न कि काले कपड़ों का तमाशा। जैसा कि कवि अज्ञेय ने कहा था:
"शब्दों से नहीं, अर्थों से जंग जीती जाती है।"
विपक्ष को चाहिए कि वह शब्दों के शोर से नहीं, अर्थपूर्ण तर्कों से अपनी लड़ाई लड़े।
संसद: मंदिर या मंच?
संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहा जाता है, लेकिन काले कपड़े, काले दिल, और काली सोच इसे रंगमंच बना रही है। यह वह मंच है, जहां सांसद कलाकार बनकर नाटक रचते हैं, और जनता दर्शक बनकर तालियां बजाने या सिसकियां भरने को मजबूर होती है। साहित्य में जब कोई नाटककार अपनी कृति को अतिशयोक्ति से भर देता है, तो वह हास्यास्पद हो जाता है। ठीक वैसे ही, विपक्ष का यह अतिनाटकीय प्रदर्शन हास्यास्पद होने के साथ-साथ दुखद भी है।
संसद की पहली लोकसभा 135 दिन चलती थी, लेकिन अब यह औसतन 52 दिन सिमट गई है। हर स्थगन, हर हंगामा, और हर नारेबाजी लोकतंत्र के उन घंटों को चुराती है, जो जनता के सवालों के जवाब ढूंढ सकते थे। यह काला कपड़ा, यह काला दिल, और यह काली सोच न तो समाधान है, न ही समर्पण। यह बस एक व्यंग्य है—हमारी राजनीति पर, हमारी संसद पर, और हमारी उस जनता पर, जो इन सांसदों को चुनकर भेजती है।
निष्कर्ष: एक काव्यात्मक आह्वान
विपक्ष को चाहिए कि वह अपने काले कपड़े उतारे, अपने दिल को साफ करे, और अपनी सोचajendr को उजला बनाए। संसद कोई सड़क नहीं, जहां नारे गूंजें। यह वह मंदिर है, जहां विचारों की पूजा होनी चाहिए। अगर विपक्ष सचमुच जनता की आवाज बनना चाहता है, तो उसे कवि दिनकर के शब्दों में प्रेरणा लेनी होगी:
"सिंहासन खाली करो कि जनता आती है!"
लेकिन जनता तब आएगी, जब विपक्ष हंगामे की बजाय तर्कों से, नारों की बजाय नीतियों से, और काले कपड़ों की बजाय स्वच्छ विचारों से उसका विश्वास जीते। अन्यथा, यह काला कपड़ा, काला दिल, और काली सोच सिर्फ एक व्यंग्य ही नहीं, बल्कि लोकतंत्र पर एक काला दाग बनकर रह जाएगा।
तो, हे विपक्ष! काले रंग से नहीं, विचारों के प्रकाश से संसद को रोशन करो। यही साहित्य का, यही लोकतंत्र का, और यही जनता का आह्वान है!
साहित्य की नजर से देखें तो यह काला कपड़ा कवि दुष्यंत कुमार के शब्दों की याद दिलाता है:
"सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।"
लेकिन विपक्ष की यह कोशिश सूरत बदलने की नहीं, बल्कि सियासत चमकाने की लगती है। काले कपड़े में लिपटा उनका विरोध, कविता की तरह गहरा नहीं, बल्कि सड़कछाप नौटंकी की तरह उथला है। यह काला रंग न तो कबीर की स्याही है, जो सत्य को उकेरता हो, न ही निराला की लेखनी, जो व्यवस्था को चुनौती देता हो। यह बस एक रंग है, जो संसद के पवित्र गलियारों में शोर बनकर गूंजता है।
काला दिल: लोकतंत्र का दाग या दर्पण?
"काला दिल" का आरोप विपक्ष पर लगाना आसान है, लेकिन यह महज एक पक्ष की कहानी नहीं। यह उस राजनीतिक संस्कृति का दर्पण है, जिसमें सत्ता और विपक्ष दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू बन गए हैं। विपक्ष का दिल अगर काला है, तो क्या वह सत्ता के उजले चेहरों से बिल्कुल अलग है? नहीं। यह काला दिल उस मानसिकता का प्रतीक है, जो संसद को विचार-विमर्श का मंच नहीं, बल्कि सियासी कुश्ती का अखाड़ा मानती है।
साहित्यिक दृष्टि से यह "काला दिल" हमें मुंशी प्रेमचंद की कहानियों की याद दिलाता है, जहां पंचायत में सत्य की जगह शोर और शक्ति का खेल चलता था। विपक्ष जब मेज पर चढ़ता है, नियम पुस्तिका फाड़ता है, या अध्यक्ष के आसन तक धावा बोलता है, तो वह लोकतंत्र की आत्मा को नहीं, बल्कि उसकी मर्यादा को लहूलुहान करता है। यह वही विपक्ष है, जो कभी अरुण जेटली और सुषमा स्वराज के बयानों को ढाल बनाकर हंगामे को जायज ठहराता है। लेकिन क्या जेटली और स्वराज का हवाला देकर संसद को बंधक बनाना उचित है? यह तो वही बात हुई कि एक गलती को दूसरी गलती से ढंक दिया जाए। कवि रघुवीर सहाय ने ठीक ही कहा था:
"सच को छिपाने की कला में,
सबसे बड़ा हुनर है शोर मचाना।"
विपक्ष का यह शोर न तो सवालों का जवाब देता है, न ही समाधान सुझाता है। यह बस एक काला धब्बा है, जो लोकतंत्र के उजले कैनवास पर फैलता जा रहा है।
काली सोच: विचारों की हार, नारों की जीत
"काली सोच" का तमगा विपक्ष पर चस्पा करना आसान है, लेकिन यह सोच सिर्फ विपक्ष की नहीं, बल्कि हमारी पूरी राजनीतिक बिरादरी की है। ऑपरेशन सिंदूर, पहलगाम नरसंहार, बिहार में मतदाता सूची पुनरीक्षण, या आधार कार्ड की वैधता जैसे गंभीर मुद्दे संसद में उठाए जाने चाहिए। लेकिन क्या इनका जवाब नारेबाजी, पोस्टरबाजी, या काले कपड़ों से मिलेगा? नहीं। यह काली सोच उस मानसिकता को दर्शाती है, जो रचनात्मक बहस की जगह शोर को हथियार बनाती है।
साहित्यिक नजरिए से यह काली सोच उस अंधेरे की तरह है, जिसे हरिवंश राय बच्चन ने अपनी कविता में बयां किया:
"अंधेरे का मोल नहीं,
दीपक की लौ जलानी होगी।"
लेकिन विपक्ष का यह रवैया दीपक जलाने की बजाय, संसद के दीपों को बुझाने का प्रयास है। जब सांसद नियम 267 के तहत चर्चा की मांग करते हैं, लेकिन हंगामे के कारण कार्यवाही स्थगित हो जाती है, तो यह न तो जनता के हित में है, न ही लोकतंत्र के। यह काली सोच उस साहित्यिक खलनायक की तरह है, जो अपनी ही कहानी को बर्बाद कर देता है।
विपक्ष के पास अवसर है कि वह ऑपरेशन सिंदूर पर प्रधानमंत्री से जवाब मांगे, पहलगाम हमले की जांच की मांग करे, या बिहार में मतदाता अधिकारों की रक्षा की बात उठाए। लेकिन इसके लिए जरूरी है स्याही से लिखा तर्क, न कि काले कपड़ों का तमाशा। जैसा कि कवि अज्ञेय ने कहा था:
"शब्दों से नहीं, अर्थों से जंग जीती जाती है।"
विपक्ष को चाहिए कि वह शब्दों के शोर से नहीं, अर्थपूर्ण तर्कों से अपनी लड़ाई लड़े।
संसद: मंदिर या मंच?
संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहा जाता है, लेकिन काले कपड़े, काले दिल, और काली सोच इसे रंगमंच बना रही है। यह वह मंच है, जहां सांसद कलाकार बनकर नाटक रचते हैं, और जनता दर्शक बनकर तालियां बजाने या सिसकियां भरने को मजबूर होती है। साहित्य में जब कोई नाटककार अपनी कृति को अतिशयोक्ति से भर देता है, तो वह हास्यास्पद हो जाता है। ठीक वैसे ही, विपक्ष का यह अतिनाटकीय प्रदर्शन हास्यास्पद होने के साथ-साथ दुखद भी है।
संसद की पहली लोकसभा 135 दिन चलती थी, लेकिन अब यह औसतन 52 दिन सिमट गई है। हर स्थगन, हर हंगामा, और हर नारेबाजी लोकतंत्र के उन घंटों को चुराती है, जो जनता के सवालों के जवाब ढूंढ सकते थे। यह काला कपड़ा, यह काला दिल, और यह काली सोच न तो समाधान है, न ही समर्पण। यह बस एक व्यंग्य है—हमारी राजनीति पर, हमारी संसद पर, और हमारी उस जनता पर, जो इन सांसदों को चुनकर भेजती है।
निष्कर्ष: एक काव्यात्मक आह्वान
विपक्ष को चाहिए कि वह अपने काले कपड़े उतारे, अपने दिल को साफ करे, और अपनी सोचajendr को उजला बनाए। संसद कोई सड़क नहीं, जहां नारे गूंजें। यह वह मंदिर है, जहां विचारों की पूजा होनी चाहिए। अगर विपक्ष सचमुच जनता की आवाज बनना चाहता है, तो उसे कवि दिनकर के शब्दों में प्रेरणा लेनी होगी:
"सिंहासन खाली करो कि जनता आती है!"
लेकिन जनता तब आएगी, जब विपक्ष हंगामे की बजाय तर्कों से, नारों की बजाय नीतियों से, और काले कपड़ों की बजाय स्वच्छ विचारों से उसका विश्वास जीते। अन्यथा, यह काला कपड़ा, काला दिल, और काली सोच सिर्फ एक व्यंग्य ही नहीं, बल्कि लोकतंत्र पर एक काला दाग बनकर रह जाएगा।
तो, हे विपक्ष! काले रंग से नहीं, विचारों के प्रकाश से संसद को रोशन करो। यही साहित्य का, यही लोकतंत्र का, और यही जनता का आह्वान है!
राजेंद्र नाथ तिवारी