अयोध्या और सरयू का वर्णन,ऋषि कम्बन, दक्षिण के वाल्मीकि

 

दक्षिण के वाल्मीकि ऋषि कम्बवन ने श्री अयोध्या की सरयू का वरण किया है,उनके तमिल ग्रन्थ इरामावतारम का प्रथम सर्ग लिखने का प्रयास है,सफलता पाठकों की इच्छा पर निर्भर है... क्रमशः
प्रस्तोता राजेंद्र नाथ तिवारी

अध्याय  एक

नदी पटल

[ कोशल देश का दर्शन करने के लिए प्रस्तुत होकर कवि पहले उस देश को हरा-भरा करनेवाली सरयू नदी का वर्णन कर रहा है।]

कोशल देश में, जहाँ बड़े ही अपराधकर्मी (पुरुषों की) पंचेन्द्रिय रूपी बाण एवं रत्नहारों से विभूषित युवतियों के कटाक्ष रूपी बाण- ये दोनों सन्मार्ग की सीमा को लॉघ-कर कभी नहीं चलते, उस समस्त भूप्रदेश को सुशोभित करती हुई सरयू नदी बहती है।

भस्मधारी (शिव) के रंगवाले मेघ से, गगन गार्ग से चलकर, समुद्र के जल का पान किया और (जल पीकर बच्क्ष पर लक्ष्मी को धारण करनेवाले विलक्षण कॉतिपूर्ण विष्णु का रंग पाकर लौटा ।

मेघ उमड़कर उठा और हिमाचल के ऊपर छा गया, मानों सागर ही, यह सोचकर कि शिवजी का ससुर यह (हिमाचल) पर्वत सूर्या ताप से संतप्त हो रहा है और उस जाप से उसकी रक्षा करनी चाहिए, हिमाचल पर फैल गया हो।

मेघ ने जलधाराएँ क्या बरसाई, एक महान् दाता के सदृश अपनी समस्त संपत्ति को ही लुटा दिया। (वह दृश्य ऐसा था कि) आकाश ने जब देखा कि यह भारी हिमाचल' (पर्वत) स्वर्णमय है, तो उस सोने को खोदकर निकालने के उद्देश्य से अपने चाँदी के बने हथौड़े उस पर मार रहा हो।

वर्षों के जल की धारा बड़े वेग से धरती पर प्रवाहित हो चली और उसने सर्वत्र शीतलता उत्पन्न कर दी, मानों मनु के उपदिष्ट धर्म-मार्ग पर चलनेवाले किसी प्रजावत्सल और गौरव-संपन्न राजा की कीर्त्ति ही सर्वत्र फैल रही हो, अथवा चतुर्वेदों को पूरा अधिगत किये हुए ब्राह्मण के हाथ में प्रदत्त दान (का यश) हो।

हिमाचल के ऊपर से वर्षा की धारा प्रबल वेग के साथ नीचे बह चली और किसी रूपाजीवा (वेश्या) नारी के समान तह (पर्वत की) शिखा, हृदय तथा पाद से संलग्न होती हुई उसकी सीमा से बाहर चली गई; क्षण-भर के लिए वह पर्वत से लगी रही, परन्तु दूसरे ही क्षण वहाँ की सभी वस्तुओं को अपने साथ बहाकर आगे बढ़ गई ।

वर्षा का प्रवाह हिमाचल के रत्न, मोर पंख, हाथियों के दाँत, स्वर्ण, चन्दन आदि अमूल्य पदार्थों को समेटकर ले चला, जिससे वह वाणिज्य करनेवाले व्यक्ति की समानता करने लगा।

वह प्रवाह कभी रंग-विरंगे पुष्पों से भर जाता जाते; कभी मधु धारा, कभी हाथियों का मदजल और कभी मृदु मकरंद उस पर छा कभी लोहित धातु उसमें मिले

1. प्राचीन तमिल-साहित्य में हिमाचल और मेरु पर्वत दोनों को कभी-कभी एक ही माना गया है, अतः यहाँ हिमाचल को (मेरु के जैसे सोने का पहाड़ कहा गया है। 

दिखाई पड़ी अपने इस रिंग के कारण यह पार गगन पर  चल रहा था। यह प्रवाह भी कया था। करनेवाली बानरसेना ही आन पड़ता था। जय श्रीरामन्द्र समुद्र पार करके संका प्रवास समुद्र पर पुल बोचनेवाली बार सेना के सशरीरता था।

उसके मीठे जल पर मौरी और विषयी काहुन्छ मंडराता दुবষয়াই पड़ता था। यह प्रवाह किनारी को साँधकर उद्दाम मंग के साथ यह चला उराका अन्तर भाग नहीं था और वह साराबानी को गिराता हुआ दोडामा रहा था, जैसे कोई माप डकार होते हुए भागा जा रहा हो ।

उस अवाह में बड़े बड़े मूग ये, भारी मुखवाले मगज थे वह भयंकर कोलाहल करता हुआ अपने आगे-आगे ध्वजाओ के समान बहुत-सी लताओं को बहाता चला जा रहा था: इम सबसे वह प्रवाह ऐसा लगता था मानो समुद्र पर चढ़ाई करने के लिए कोई यही सेना को साथ लिये जा रहा हो।

करता है।] बी-प्रवाह का वर्णन करने के पश्चात् श्रय कवि सरय नदी का विशेष वान

क्षुब्ध जलधि से परिवृत इस धरती पर जीवन धारण करनेवाले जो प्राणी है, उनके लिए सरयूनदी मातृस्तन्य सहश है। सूर्यवंश के नरेश जिस महान् सद्धम का पालन अनादि काल से करते आ रहे थे, उसी धर्म का पालन वह नदी भी कर रही है।

सरयू की धारा, कौशल देश की रमणियों के बनाये सुगंधपूर्ण, कुंकुम, केसर, कोठ . ( एक सुगंधित द्रव्य), इलायची, शीतल चंदन, सिन्दूर, नागरमोथा, गुग्गुल, मोम आदि पदाथों के मिलने से बहुत ही सुगंधित रहती है। जब स्त्रियाँ नदी में स्नान करती थी, तव ये वस्तुएँ उसके प्रवाह में मिल जाती थीं और नदी का जल सुगन्धित हो जाता था ।)

सरयू की बाढ़, अपने जल-रूपी वाणों के कारण, आसपास रहनेवाले व्याघ लोगों के छोटे-बड़े गाँवों में बड़ी हलचल मचा देती है। वह व्याध-नारियों को अपनी छाती पीटकर रोते-कलपते हुए भागने पर बाध्य कर देती है। ऐसे समय में वह नदी शत्रुओं के लिए भयंकर (किसी) वीर नरेश की सेना का दृश्य उपस्थित करती है।

१. मथप और जल-प्रवाह दोनों के समानं विशेपण दिये गये हैं। सागुवान पेड़ को तमिल में 'तेक्कु' कहते हैं। इस शब्द को क्रिया के रूप में रखने पर दूसरा अर्थ निकलता है। 'डकार लेते हुए', मथप के पक्ष में, यह अर्थ संगत होता है।

२. तमिल में 'कोडि' शब्द का अर्थ होता है 'लता'। शब्दश्लेप से उसका दूसरा अर्थ 'ध्वजा' भी होता है। मूल में इस शब्द का प्रयोग करके कवि ने बड़ा चमत्कार दिखाया है। 


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