पांच सौ साल बाद कुपढ़ो,टके पंथी दलोँ का मानस पर चौतरफा आक्रमण,तुलसी दास पर प्रश्नचिन्ह???

 


बाबा तुलसीदास एक बार फिर संकटों के घेरे में आ गए हैं अब की बार उनके ऊपर जातिवादी ,दलित और स्त्री विरोधी बताते हुए चौतरफा आक्रमण हो रहा है ।उनके रामचरितमानस पर नफरत फैलाने वाला ग्रंथ बता कर उस पर प्रतिबंध की मांग की जा रही  है।इस बार तुलसी पर हमला अपनों ने नहीं कुपढ़ो  ने किया है ,कूपढ़ वे लोग हैं जिनकी मानसिकता खतरनाक है और कुछ भी बोलने से चूकते नहीं तुलसी इस बात के लिए अभिशप्त हैं कि उनको ऊपर बार-बार संकटझेलना पड़ता है ।ऐसा संकट तुलसी ने पहली बार नहीं झेला ।इसके पहले उनका जन्म बांदा में और मृत्यु बनारस में हुई। पहला संकट उनके जन्म के बाद ही मूल नक्षत्र में पड़ने के नाते ज्योतिषियों के परामर्श पर उनके माता-पिता ने उन्हें त्याग दिया। उनकी दाई चुनिया ने उनका पालन पोषण किया सेविका चुनिया ने उन्हें पाल पोस कर बड़ा किया ।

बताते हैं उनका नाम राम बोला था और उनके मुह से राम शब्द निकला था इस नाते माता-पिता डरकर उनको त्याग दिए और दर-दर ठोकर खाने को मजबूर हो गए। जन्मना तुलसी पर यह दूसरा आक्रमण था तीसरा आक्रमण जब उनकी धर्मपत्नी रत्नावली ने उन्हें दुत्कार कर हाड मांस की अपनी हेयदृष्टि से ध्यान हटाकर भगवत भजन में लगाने के लिए आदेश सुनाया ,सांप को पकड़कर उनके घर गए थे, तुलसी यह आघात तो सह न सके और उन्होंने फिर श्री हनुमान जी के चरणो में अपने को लगाने का पूरा मन बना लिया और संपत 1631 में श्री हनुमान जी के आशीर्वाद से उन्होंने रामचरितमानस लिखना आरंभ किया। बनारस में संकट मोचन मंदिर की स्थापना के बाद उन्होंने यह काम किया।फिर भी संकट ने उनका पीछा यहां भी नहीं छोड़ा ,रामचरितमानस को लिखते समय उन्होंने लोक भाषा अवधि में लिखा ।काशी के पंडितों ने दुत्कार कर उनको निशाने पर लिया और कहा देववाणी संस्कृत में उसे लिखना चाहिए अवधी गवारो की भाषा है लेकिन तुलसी लोकमंगल, लोक भाषा और लोक संस्कृति के प्रबल जानकार थे ।भाषा विज्ञान पर उनकी अच्छी पकड़ थी तुलसी जितना लिखना चाहते थे उतना उन्होंने लिखा  उनके इस साहित्य को काशी के पंडितों ने गंगा में फेंकना आरंभ किया। मारना पीटना ,अत्यचार काशी के पंडितों का स्वभाव बन गया।  


 आज का भदोही कभी भयदायिनी कहा जाता था ।तुलसी ने वही आश्रय बनाया।

 तुलसी के रामचरितमानस की गिनती विश्व साहित्य के अप्रतिम कृतियों में हो रही है। दुर्भाग्य है कि मानस लिखने के लिए के बाद 500 वर्ष बाद अब तुलसी पर चौतरफा आक्रमण हो रहा है ।तुलसी का यह ग्रंथ अपने नायक की सम्मान में लिखा गया लोक मंगलकारी साहित्य है परंतु उन्होंने कुपढो ने अपना स्वार्थ ढूंढ कर अपने स्वार्थ का निस्तारण ढूंढ कर इस कृति को धार्मिक करार देते हुए चौतरफा असहिष्णुता का आक्रमण किया है।

 तुलसी का साहित्य शुद्ध रूप से प्रबंध काव्य है गांधी जी ने मानस को भक्ति साहित्य की श्रेष्ठ कृति बताया है। रामचरितमानस पर सैद्धांतिक और शैक्षिक बहस हो सकती है ।ढोल गवार प्रसंग को या धोखे से बाली वध या फिर सीता की अग्नि परीक्षा इन सब पर बौद्धिक बहस होती रहेगी, हो भी रही है ,होनी भी चाहिए ,पर किसी महाकाव्य के सिर्फ 2 लाइनें उठाकर ग्रंथ के प्रति दुर्भावना फैलाना और साहित्यिक और राष्ट्रीय अपराध है 

रामचरितमानस बाबा तुलसीदास की प्रारंभिक कृति है उन्हें समझने के लिए मानस से लेकर विनय पत्रिका तक की यात्रा करनी पड़ेगी। उनके ग्रंथ पर स्वामी प्रसाद मौर्य  या कोई भी पढ़ना है तो कवितावली और विनय पत्रिका भी पढ़े ,अगर इस देश के  रचना संसार को देखें तो तुलसी बाबा एक सजग और जागरूक नेता ,लोकमंगल , यथार्थ का विवेचन करने वाले कवि हैं ।कोई भी रचनाकार अपने कालखंड के स्थान, काल और परिस्थितियों के निरपेक्ष नहीं हो सकता ।उसे उस वक्त की बातों को लोक भाषा में लिखना आवश्यक है ।उन्हें समझने के लिए कुपढों को 500 बरस पहले का साहित्य और तत्कालीन समाजशास्त्र पढ़ना होगा ।

तुलसी पूरी संवेदना के साथ अपने समाज के समस्या से टकराते हैं सिर्फ टकराते ही नहीं वह राम राज्य को विकल्प भी देते हैं। आज भी रामराज आदर्श व्यवस्था के लिए एक नजीर माना जाता है। चाहे महात्मा गांधी या नरेंद्र मोदी ।गोर्की कहते थे सबसे सुंदर बात है अच्छी बातों को समझना ।यह किसी रचनाकार के उदारता का प्रमाण है। तुलसी किसी भी अपने समय के रचनाकारों से इसलिए भिन्न हैं कि वह सबसे कठिन समय में युग की कल्पना करते हैं ।रामराज्य की कल्पना से ऐसे युग का सपना देखते हैं। बैरू न कर काहू सन हुई। रामप्रताप विषमताखोई।। सब नर करहिं परस्पर प्रीति। चलही स्वधर्म निरत नीति। इस कल्पना का सबसे मनोरम दृश्य यह है कि उत्तरकांड में राम को सिंहासन पर बैठा कर अपनी कथा भी समाप्त नहीं करते। राम के राम राज्य संभालने के बाद उनसे और भी काम करवाते हैं ,पर तुलसी बनवासी राम पर जितने शब्द लिखते हैं राक्षस संता राम और सम्राट राम पर उनका आधा भी नहीं है।यह राम का जनपक्ष हे।

 



  तुलसी की ज्ञान परंपरा, इतिहास और तत्कालीन समाजशास्त्र का अध्ययन स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे कुपढ़ो को नहीं है। तुलसी का रचना संसार उन्हें भगवान मानने के लिए और कुछ न मानने वालों के बीच में फंसा हुआ है ।

 रामचरितमानसबपर बखेड़ा और नफरत दिखती है उन्हें नहीं मालूम उस समय न मंडल कमीशन आया था ,और न ही नारी विमर्श आया था ।500 वर्ष पुराने साहित्य को आज के संबंधों में खरे उतरने की मांग करना कुपढ़ो और स्वामीनाथो के लिए कुमार्ग के जैसा है। इसे समझने के लिए हमें रामचरितमानस को धर्म ग्रंथ की पच्चीकारी से उतरकर सजग जागरूक योग्य महाकाव्य के तौर पर देखना होगा।

 दूसरी तरफ से लोग हैं जो मानस की पूजा करते हैं ।रामचरितमानस असल समस्या नहीं है ।असल समस्या यह है कि रामचरितमानस के माध्यम से समाज में वोटों की राजनीति करने वाले लोगों को उसकाना और और बाटना।


तुलसीदास उसी तरह से हैं जैसे जायसी का -पद्मावत केशव की- रामचंद्रिका, नाभादास का -भक्तमाल ,सुर का -सूरसागर व कबीर की रमेनी व शबद और साखी ।

उन्होंने अपने समाज की तत्कालीन अभिव्यक्ति को अपने ग्रंथों में स्थान दिया है। मानस पर सवाल उठाने वाले धार्मिक भावनाएं भड़काकर ,परस्पर वर्ग संघर्ष के तनिक और कुछ नहीं है ।

हमारी परंपरा धर्म में तो आप राम को माने ना माने तब भी हिंदू हैं शिव को ना माने तो भी हिंदू हैं सती को ना माने तो भी हिंदू में मूर्ति की पूजा करें तो भी हिंदू हैं मूर्ति की पूजा ने करें तो भी हिंदू हैं इतना सही सुधर्म है हमारा ।

चौथी शताब्दी में चार्वाको ने ईश्वर के अस्तित्व को चुनौती दी थी वेदों पर सवाल खड़ा किया नास्तिक वाद और भौतिकवाद के जनक हैं। फिर भी हमने उन्हें ऋषि की परंपरा में स्थान दिया उन्हें इस निंदा का दोषी नहीं ठहराया ऐसी मजबूर और उदार हमारी विरासत है बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर उत्तर प्रदेश के स्वामी प्रसाद आदि ने मानस को नफरत फैलाने वाला ग्रन्थ बताया है। इन्हें कुछ भी नहीं पता पर शामिल बाजा बजाने के लिए उदित राज और चंद्रशेखर  जैसे लोग भी कुपढ़ोको भूमिका में हैं ।

जब तुलसी रामचरितमानस रच रहे थे तब ना तो स्त्री विमर्श के चौखट से और न तो दलित विमर्श से ही बने थे और ना ही स्त्रीवादी विमर्श की आयाम थे ।तुलसी सिर्फ और सिर्फ मध्यकाल के समाज और उनके व्यवहार और लोकाचार के आधार पर मानस की रचना कर रहे थे। वह अपना युग लिख रहे थे ।किसी  भी रचनाकार का युग धर्म होता है ,इसलिए उन्हें संपूर्ण उस वक्त समाज व्यवस्था की रोशनी से देखना होगा ।तुलसी का समाज कुरीतियों और विद्रूपता से भरा था। इस कठिन समय में तुलसी ने वही किया जो एक सजग साहित्यकार को करना चाहिए था  तुलसी उसे रामराज्य कहते हैं तुलसी अगर अपने वक्त की समस्याओ को बखान कर रहे हैं तो उसको जातिवाद या नफरत बाद से नहीं जोड़ा जा सकता ।हर काम का एक अनुशासन होता है। 

 रामचरित मानस चरित्र महाकाव्य है जो विराट का आकर्षण  विरुद्ध तत्व के मूल्यों पर केंद्रित है ,जिसका नायक संघर्षों में तप करता है, वह योद्धा नायक नहीं है न हीं चमत्कारी युवक है ,तुलसी के राम पराजित दुखी आदर्शों और संकल्पों को सामने जीवन का सब कुछ गंवा देने वाले नायक हैं ।

सामान्य भारतीय का संघर्ष है, इसलिए वह राम से सीधा जुड़ जाता है राज्य से बेदखली ,पत्नी का अपहरण इन दुखों से तपे राम सामान्य व्यक्ति हैं तुलसी ने कभी राम को राजाराम का सम्मान नहीं दिया। चमत्कार की जगह उदारता बनाते हैं ।आज मनुष्य के दायरे में जो सर्वश्रेष्ठ है वह राम है आधुनिकता और प्रगतिशीलता को अपने देश  काल के संदर्भ में देखा जाना चाहिए ।अगर ऐसा नहीं होता तो प्रेमचंद की प्रगतिशीलता भी आज के संदर्भ में प्रगतिशील  की कसौटी पर खरी नहीं उतरेगी ।यह बहस बेईमानी है तुलसी स्त्री विरोधी थे। डॉक्टर लोहिया कहां करते थे नारी की पीड़ा को तुलसी जिस ढंग से व्यक्त करते हैं उसका मिसाल भारत में ही नहीं दुनिया में भी किसी भी साहित्य में नहीं है ।पराधीन सपनेहु सुख नाही ।सीताराम ,भवानी शंकर ,भवानीविनायक श्रद्धा विश्वासरूपिड़ो, सियाराम मय सब जग जानी वाले तुलसी स्त्री की शक्ति संपन्नता और पीड़ा के गायक मानस की शुरुआत में ही स्त्री की जिज्ञासा से शुरू होती है ।

पार्वती शिव से पूछती हैं राम के प्रसङ्ग। सन्यास स्त्री के लिए वर्जित है इसलिए पार्वती शंकर से डरती डरती पूछती हैं। भक्ति मार्ग में पहली बार स्त्री को अधिकार मिला तुलसी के जरिए तुलसी जातिवादी नहीं हो सकते क्योंकि वे भक्त हैं  सर्वहारा का आंदोलन है ।वह चाहे किसी जाति संप्रदाय का हो उनके पास अपना कुछ नहीं है सब भगवान का दास भाव से रहता है दास का लाने में गौरव हासिल करता है इसलिए भक्तों की आगे दास लिखा जाता है तुलसीदास ,कबीर दास ,सूरदास नंददास ,केशवदास ,सुंदर दास आदि यहां जाति और कुल का विचार नहीं है जाति कुल गोत्र वर्ग रंग आदेश अहंकार देते हैं ,इनकी सीमाओं में बधना वर्जित मानते है तुलसी। तुलसी वर्जित करते हैं ।

 शेक्सपियर को भी एलिजाबेथनऔर जिनका योग मानते हैं उनका समाचरम जातिवादी था ब्राह्मण बाद में भी संस्कृत ब्राह्मणवाद का योग था अगर हम जाति और समाज विभाजन के योग इन परिस्थितियों के संदर्भ में रामचरितमानस को पड़े तो समझ में आएगा कि तुलसी ने जानबूझकर समाज के सारे चरित्र चुनें जो मुख्यधारा में नहीं थे मसलन, निषाद, बनवासी, शबरी, वानर ,कौवा ,काग भुसुंडी अगर वह सब नही होते तो राम को रावण से युद्ध करा कर विजेता घोषित किया जा सकता था।

 पर तुलसीराम की जीत में देवत्व स्थापित नहीं कर पाए इसलिए उन्होंने जातियों का सच लिखा ।शबरी के राम ने उनके झूठे बेर खाए ढोल गवार शुद्र पशु नारी सकल ताड़ना के अधिकारी पर बहस करते हैं ,पर उनके पास कागभुसुंडी नहीं देख पाते ।जिन्हें तुलसीराम भक्ति का सिरमौर बताते हैं भरत निषाद को गले लगाने के लिए उतरते हैं राम सखा सदन त्यागा चलें उतरी डगमग अनुरागा राम भक्तों के कथित छोटी जातियों में विख्यात हैं ।तुलसी ने अपने को गुलाम कहा है तुलसी शरण गुलाम है ?जाति के पचड़े में  उन्होंने मस्जिद में सोने के लिए भी तैयार थे ।तुलसी पर हमला उस वक्त भी जातिवादी ब्राह्मणों ने किया था उन्हें षड्यंत्रकारी दगाबाज अनेक लोगों से सजाया तुलसी ने भी पथभ्रष्ट ब्राह्मणों की निंदा की परंतु पूरे समाज को बर्बाद करने पर तुला हुआ है।

 आवश्यकता इस बात की है कि समाज ऐसे कपड़ों के चंदा जी भी लोगों के और वर्ग संघर्ष वादियों जाति वादियों की परवाह न कर उनका तिरस्कार करें और मानस को तत्कालीन साहित्य का सर्वोच्च ग्रंथ मानकर व्यवहार करें ।स्वामी प्रसाद मौर्या जैसे लोगों को जो राजनीति में विघ्नसंतोषी की संज्ञा से जाने जाते हैं ,उनको उस अवधि का भी अध्ययन करना चाहिए ।आज भी ताडन का मतलब सहेजने से है ।इसलिए इस बात को ध्यान में रखकर सबको व्यवहार और विचार करना चाहिए,समझ के फेर से खुदा जुदा हो जाता है.

राजेन्द्र नाथ तिवारी

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