मास्टर जी, कैसे पढ़ाते हैं आप, यह भी तो सोचिये ?
आर.के. सिन्हा
आज अध्यापक दिवस है और सारा देश अपने अध्यापकों के प्रति आभार व्यक्त कर रहा है। यह जरूरी भी है। अपने विद्य़ार्थियों को बेहतर नागरिक बनाने वाले अध्यपकों के योगदान को देश-समाज को सदैव याद रखना ही होगा। पर उन शिक्षकों से भी आज यह सवाल पूछा जाना चाहिए जो अपनी क्लास को लेने के बजाय ट्यूशन पढ़ाने में ही अधिक रुचि लेते हैं। क्या उन्हें यह करना चाहिए? अब कोई यह न कहे कि ऐसा नहीं होता। उन अध्यापकों से भी यह सवाल पूछा जाए जो अपनी कक्षा में बिना किसी तैयारी के चले आते हैं। क्या यह एक शैक्षणिक अपराध नहीं है ? शिक्षक के ऊपर देश की भावी पीढ़ी को गढ़ने और तराशने की ज़िम्मेदारी है। लेकिन, अब भी हमारे देश के हजारों स्कूलों-कॉलेजों के शिक्षक अपनी क्लास को लेने से पहले रत्ती भर भी अध्ययन नहीं करते। क्लासों में भी समय से नहीं आते ! एक बार स्थायी नौकरी मिलने के बाद उन्हें लगता है कि अब तो उनका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। उन्हें नौकरी की सुरक्षा तो मिलनी ही चाहिए। उन्हें समय-समय़ पर प्रोमेशन भी मिले तो किसी को आपत्ति नहीं। लेकिन, क्या उन्हें अपनी जिम्मेदारी को सही तरीके से अंजाम न देने के बदले में कोई दंड न दिया जाए ?
उत्तर प्रदेश से कुछ समय पहले खबर आई थी कि वहां 10 वीं की हाई स्कूल और 12 वीं की इंटर की परीक्षाओं के हजारों विद्यार्थियों का हिन्दी के पेपर में प्रदर्शन अत्यंत ही निराशाजनक रहा। क्या इन विद्यार्थियों के मास्टरजी जिम्मेदारी लेंगे कि उनके शिष्यों के खराब प्रदर्शन में वे भी कुछ हद तक जिम्मेदार है?
देखिए अध्यापक बनना बच्चों का खेल नहीं है। पर हमारे यहां इस क्षेत्र में वे लोग भी आ जाते हैं जिनकी इस पेशे को लेकर कोई निष्ठा तक नहीं होती। बस उन्हें तो एक स्थायी नौकरी चाहिए। वे यह कभी सोचते तक नहीं कि यह
ये साधना और त्याग से से जुड़ा पेशा है। अध्यापन किसी अन्य नौकरी की तरह नहीं है। अध्यापक उसे ही बनना चाहिए जो जीवनभर अध्यापन और अपने विद्यार्थियों के हितों को ही प्राथमिकता देता हो। इस तरह के अध्यापकों का समाज में सम्मान भी होता है। अभी कुछ रोज पहले दिल्ली यूनिवर्सिटी (डीयू) में इतिहास पढ़ा रहे डॉ डेविड बेकर के निधन से समूची दिल्ली यूनिवर्सिटी बिरादरी शोक में डूब गई थी। वे एक तरह से इतिहास पुरुष थे। वे 1969 से दिल्ली यूनिवर्सिटी में इतिहास पढ़ा रहे थे। उन्होंने जब यहां पढ़ाना शुरू किया तब देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं और अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन थे। वे अपने विद्यार्थियों को अपनी संतान ही मानते थे। सुबह-शाम नियमित पढ़ते-लिखते-पढ़ाते रहते थे। डेविड बेकर जैसा बनने के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है। इसी तरह डॉ नामवर सिंह भी थे। हिन्दी पट्टी का कौन सा इंसान होगा जिसने उनकी ख्याति नहीं सुनी होगी। वे जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी में हिन्दी पढ़ाते थे। उनकी कक्षाओं को छात्र कभी मिस नहीं करते थे।
देखिए अध्यापन से पवित्र दूसरा कोई काम नहीं हो सकता। अध्यापक को अपने मेधावी छात्रों की तुलना में कमजोर शिष्यों पर फोकस करना चाहिए। मेधावी विद्यार्थी तो अपना काम निकाल लेगा। पर जो कक्षा में पिछली कतार में बैठा है उसकी तरफ अधिक ध्यान देना होगा। आमतौर पर अध्यापक समझते हैं कि उनके मेधावी विद्यार्थियों को उनकी बात समझ आ गई तो बाकी सबको भी समझ आ गई। अध्यापक को अपनी कक्षा में उन्नीस रहने वाले बच्चों को बार-बार समझाना होगा। उन्हें धैर्य से काम लेना होगा। उन्हें प्रेरित करते रहना होगा ताकि वे उनसे सवाल पूछें। मारपीट करने से बात नहीं बनेगी। अध्यापकों को अपना आचरण और व्यवहार भी अनुकरणीय रखना होगा। उन्हें स्कूल-कॉलेज में सही वेषभूषा ही पहन कर ही आना चाहिए। मुझे कोरोना काल से पहले राजधानी के एक स्कूल में जाने का मौका मिला। मुझे वहां पर आयोजित एक कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया गया था। मुझे यह देखकर घोर निराशा हुई कि उस स्कूल के बहुत से अध्यापक उस दिन जींस पहनकर आए हुए थे। मुझे लगता है कि अध्यापकों को स्कूल या कॉलेज में जींस पहनने से बचना चाहिए। वे स्कूल के बाहर जींस पहनने के लिए स्वतंत्र हैं। कुछ स्कूलों के अध्यापक अपने शिष्यों को उनकी जाति से भी संबोधित करने से बाज नहीं आते। ये सरासर गलत परम्परा है।
आप देखेंगे कि हमारे यहां कई शिखर हस्तियों के अंदर का अध्यापक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में आगे बढ़ने के बाद भी जीवित रहा। जैसे कि डॉ राजेन्द्र प्रसाद देश के राष्ट्रपति बनने के बाद भी राष्ट्रपति भवन के अंदर स्थित विद्लाय में लगातार पढ़ाया करते थे। वे अक्सर 10 वीं और 11 वीं की कक्षाओं को पढ़ाने पहुंच जाते थे। वे कक्षा में पूरी तरह से शिक्षक बन जाया करते थे। उन्हें बच्चों को हिन्दी और इंग्लिश व्याकरण पढ़ाना पसंद था। एपीजे अब्दुल कलाम देश के राष्ट्रपति बने तो वे भी राष्ट्रपति भवन के स्कूल में निरंतर आने लगे। वे यहां स्वाधीनता दिवस या गणतंत्र दिवस समारोहों के अलावा भी पहुंच जाया करते थे। वे किसी भी क्लास में चले जाते थे। वे वैज्ञानिक थे। तो उनकी पाठशाला में विज्ञान के विभिन्न पहलुओं पर ही बातें होती थीं। वे बच्चों को प्रेरित थे कि वे अपने अध्यापकों से सवाल पूछे।
महात्मा गांधी भी मास्टरजी बने थे।ये तथ्य कम ही लोग जानते हैं। उनकी दिल्ली की वाल्मिकी बस्ती में पाठशाला चलती थी। उनकी कक्षाओं में सिर्फ बच्चे ही नहीं आते थे। उसमें बड़े-बुजुर्ग भी रहते थे। वे वाल्मिकि मंदिर परिसर में 1 अप्रैल 1946 से 10 जून,1947 तक रहे। वे शाम के वाल्मिकी बस्ती में रहने वाले परिवारों के बच्चों को पढ़ाते थे। उनकी पाठशाला में खासी भीड़ हो जाती थी।
बापू अपने उन विद्यार्थियों को फटकार भी लगा देते थे, जो कक्षा में साफ-सुथरे हो कर नहीं आते थे। वे स्वच्छता पर विशेष ध्यान देते थे। वे मानते थे कि स्वच्छ रहे बिना आप ज्ञान अर्जित नहीं कर सकते। ये संयोग ही है कि इसी मंदिर से सटी वाल्मिकी बस्ती से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2 अक्तूबर 2014 को स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की थी। वो कक्ष जहां पर बापू पढ़ाते थे, अब भी पहले की तरह ही बना हुआ है। यहाँ एक चित्र रखा है, जिसमें कुछ बच्चे उनके पैरों से लिपटे नजर आते हैं।
तो अध्यापक दिवस पर देश की समस्त अध्यापक बिरादरी को एक बार पुन: बधाई। उनसे देश इस बात की अपेक्षा रखेगा कि वे शिक्षक धर्म का पूरी तरह से निर्वाह करेंगे और शिक्षण कार्य को मात्र नौकरी की तरह नहीं, बल्कि; राष्ट्रनिर्माण का महान कार्य समझकर शिक्षण कार्य का पूरा आनंद लेंगे।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं)