“हस्ताक्षर की कीमत 10 हज़ार?”—व्यवस्था पर चोट करता एक केस
बस्ती, उत्तरप्रदेश
कतरन में दर्ज आरोप साफ़ है: विवाह प्रमाण-पत्र के लिए “साहब” बिना 10–15 हज़ार लिए हस्ताक्षर नहीं करेंगे। बार-बार चक्कर, फाइल वापस, “ऊपर” का डर दिखाना—यह सब मिलकर बताता है कि कलेक्ट्रेट का वैधानिक काम भी अब बोली पर चढ़ता है। गरीब दंपति की बेबसी को नकद में भुनाने की यह प्रवृत्ति किसी एक अफसर की बदसलूकी भर नहीं, पूरे तंत्र की नैतिक हानि है।
कानूनी दृष्टि से, रिश्वत माँगना भी अपराध है। नागरिक का वैध अधिकार—विवाह का पंजीकरण और प्रमाण-पत्र—को “सेवा” नहीं, “उपकार” बना देना, पद का दुरुपयोग है। सरकारें पोर्टल, टाइम-लिमिट, ऑनलाइन ट्रैकिंग की बात करती हैं; ज़मीन पर वही फाइल, वही टेबल, और वही “चाय-पानी” का अनौपचारिक टैरिफ चलता दिखे तो संदेश साफ़ है: सिस्टम को नकदी में डाउनग्रेड कर दिया गया है।
प्रशासनिक विफलता भी उतनी ही स्प्ष्ट है। यदि किसी कार्यालय में प्रमाण-पत्र की तय शासकीय फीस, प्रक्रिया और समय-सीमा खुले में प्रदर्शित नहीं, रसीद के बिना कोई पैसे घूमते दिखें, दलालों का जाल कार्यालय के भीतर तक फैला हो—तो यह केवल “व्यक्तिगत ईमानदारी” का मुद्दा नहीं, संस्थागत निगरानी की नाकामी है। जिलाधिकारी का सख्त औचक निरीक्षण, शिकायत पर तत्काल पूछताछ/निलंबन और फाइल-ट्रेल की ऑडिट—ये न्यूनतम कदम हैं, उपकार नहीं।
इस तरह के प्रकरण सबसे ज्यादा कमजोर लोगों को चोट पहुँचाते हैं। जिनके पास समय और संसाधन कम हैं, वे ही सबसे महँगा “न्याय” चुकाते हैं—कभी 15 हज़ार, कभी 10। परिणाम? सार्वजनिक संस्थानों पर भरोसा घटता है, निजी जुगाड़ मजबूत होता है, और क़ानून की गरिमा खोखली लगती है। यही वह खतरनाक ढलान है जहाँ लोकतंत्र सेवा-राज्य से वसूली-राज्य में फिसलता है।
उपाय भी उसी अनुपात में धारदार चाहिए: (1) तय फीस, चेकलिस्ट और समय-सीमा हर काउंटर पर बड़े बोर्ड पर; (2) पूरी प्रक्रिया कैमरा-कवर्ड व केवल रसीद-आधारित भुगतान; (3) फाइल की डिजिटल ट्रैकिंग और अधिकारी-वार देरी का सार्वजनिक डैशबोर्ड; (4) शिकायत आने पर 72 घंटे में प्राथमिक जाँच और परिणाम सार्वजनिक; (5) दोष सिद्ध होने पर वेतन-कटौती/ACR में एंट्री और पदस्थापन पर तत्काल रोक।
यदि कतरन में वर्णित बातें सत्य हैं, तो यह मामला उदाहरणात्मक दंड का है—ताकि अगले ही दिन “साहब” खुद बोर्ड लगाएँ: “रिश्वत माँगना/देना अपराध है। केवल रसीद पर भुगतान।” प्रशासन की विश्वसनीयता एक-एक हस्ताक्षर से बनती है; जब हस्ताक्षर बिकने लगें, तो पूरा शासन साख गँवाता है। अब निर्णय यह है कि सरकार एक गरीब दंपति के साथ खड़ी होती है, या “दस हज़ार” के साथ।